Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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13. देहधारियों की दुर्दमनीय बनी हुई ये पाँचों इन्द्रियाँ संसार का हेतु बनती हैं और ये ही इन्द्रियाँ सम्यक् प्रकार से नियन्त्रित होने पर निर्वाण का हेतु बनती हैं।
___13. These reinless senses generate the world for the individual. Once restrained, these very senses serve as tools for deliverance.
दद्दन्तेहिदिएहऽप्पा, दप्पहं हीरए बला।
दुद्दन्तेहिं तुरंगेहिं, सारही वा महापहे।।14।। 14. दुर्दान्त बनी हुई इन्द्रियाँ आत्मा को बलपूर्वक दुष्पथ (कुमार्ग) पर ले जाती हैं। जैसे दुर्दान्त घोड़े सारथि को राजमार्ग से हटाकर बीहड़ पथ में ले जाते हैं।
14. Unrestrained senses drive the soul along downward infernal trends as the wild stallions drag the chariot off the highway to wilderness.
इन्दिएहिं सुदन्तेहिं, ण संचरति गोयरं।
विधेयेहिं तुरंगेहिं, सारहिव्वा व संजुए।।15।। __15. नियन्त्रित की हुई इन्द्रियाँ सुपथ में संचरण करती हैं। जैसे संयत/शिक्षित अश्व सारथि को प्रशस्त मार्ग पर ले जाते हैं।
15. Regulated senses are prone to move towards the creditable path like trained steeds that always stick to the highway.
पुव्वं माणं जिणित्ताणं, वारे विसयगोयरं।
विधेयं गयमारूढो, सूरो वा गहितायुधो।।16।। 16. पहले मन पर विजय प्राप्त करे, फिर विवेक-रूपी हाथी पर आरूढ़ होकर शस्त्रधारी शूरवीर के समान इन्द्रियों को विषय-वासना की ओर जाने से रोके।
16. Initially, mind should be conquered. Then one should ride and command the elephant of wisdom like an armed warrior. One should vigilantly drive senses off the object of passion.
जित्ता मणं कसाए या, जो सम्मं करते तवं।
संदिप्यते स सुद्धप्पा, अग्गी वा हविसाऽऽहुते।।17। ___ 17. मन और कषायों पर जो विजय प्राप्त कर, सम्यक् प्रकार से तप करता है वह शुद्धात्मा हविष (होम के योग्य पदार्थों) से आहुत अग्नि के समान देदीप्यमान होता है।
29. वर्द्धमान अध्ययन 363