Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जीवो अप्पोवघाताय, पडते मोहमोहितो । बन्धमोग्गरमाले वा णच्चन्तो बहुवारिओ ।।14।।
"
14. मोहग्रस्त जीव स्वकृत कर्मों से ही अपनी आत्मा (आत्मा के स्वाभाविक गुणों) का नाश और पतन करता है। वासना रूप मुद्गरों से बन्धे के समान अनेक बार (संसार में) नाचता रहा है।
हुए
14. A morally confounded being eclipses the spontaneous glory of his own soul and thereby suffers a fall. He is as if sandwiched between the crushing clubs which drive him repeatedly to reincarnations sans respite.
असब्भावं पवत्तेन्ति, दीणं भासन्ति वीकवं । कामग्गहाभिभूतप्पा, जीवितं पयहन्ति य ।।15।।
15. कामग्रह से अभिभूत प्राणी असद्भाव की प्रवर्तना करते हैं अथवा विवेकशून्य होकर व्यवहार करते हैं, विकलतापूर्ण दीन वाणी बोलते हैं। वे अपने जीवन और मार्ग का नाश करते हैं अथवा अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हैं।
15. Lecherous individuals multiply falsehood, behave wildly and often resort to entreaties. They lambast their career and their life. It is well nigh a suicide.
हिंसादाणं पवत्तेन्ति, कामसो केति माणवा ।
वित्तं णाणं सविणाणं, केयी णेन्ति हि संखयं । ।16 ||
16. कई मानव काम के वशीभूत होकर हिंसा और चोरी करते हैं, वे अपनी सम्पत्ति, ज्ञान, विज्ञान आदि सब का नाश करते हैं।
16. Certain stupid individuals libidinously resort to killing and robbery. They are deprived of their property, attainments and wisdom.
समाणुसं ।
सदेवोरगगन्धव्वं, सतिरिक्खं कामपंजरसंबद्धं, किस्सते विविहं जगं ।।17।।
17. देव, सर्प, गन्धर्व, पशु-पक्षी और मानव सभी काम के पिंजरे में बंध कर जगत् में विविध प्रकार के क्लेशों को प्राप्त करते हैं।
17. Gods, serpent-gods, angels animals and men—all are slaves of desire and thus earn woes of all kinds.
कामग्गहविणिम्मुक्का, धण्णा धीरा जितिन्दिया । वितरन्ति मेइणिं रम्मं, सुद्धप्पा सुद्धवादिणो ।। 18 ।।
28. आर्द्रक अध्ययन 357