Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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देविन्दा समहिड्डीया, दाणविन्दा य विस्सुता।
णरिन्दा जे य विक्कन्ता, संखयं विवसा गता।।7। 7. महर्द्धिसम्पन्न देवेन्द्र, विख्यात दानवेन्द्र और पराक्रमशाली नरेन्द्र एक दिन विवश होकर चले गये।
7. Great divinities, marvellous demons and valorous princes who had an ignoble end are now no more to be seen.
सव्वत्थ णिरणुक्कोसा, णिव्विसेसप्पहारिणो।
सुत्तमत्तपमत्ताणं, एका जगतिऽणिच्चता।।8।। 8. जगत् में सुप्त, मत्त और प्रमादी प्राणियों पर अनित्यता निर्दय होकर समान रूप से सर्वत्र प्रहार करती है। : 8. The somnolescent, defiant and vainglorious individuals meet the same none-too-enviable fate at the hands of ruthless death.
देविन्दा दाणविन्दा य, णरिन्दा जे य विस्मृता।
पुण्णकम्मोदयब्भूतं, पीतिं पावन्ति पीवरं।।१।। 9. देवेन्द्र, दानवेन्द्र और नरेन्द्र जो प्रख्यात हैं वे पुण्यकर्म के उदय से उन्नति और प्रीति को प्राप्त करते हैं।
9. The worshipful divinities, demi-gods and princes enjoy their legendary fame so long as their happy destiny caused by virtuous deeds is in the ascent.
आऊ धणं बलं रूवं, सोभग्गं सरलत्तणं। णिरामयं च कन्ते च, दिस्सते विविहं जगे।।10। 10. आयु, धन, बल, सौन्दर्य, सौभाग्य, सरलता, निरोगता और मनोहारिता जगत् में विविध रूपों में दिखाई देती है।
10. We come across the cherished longevity, prosperity, physical charm, good-luck, straight-forwardness, health and magnetism in various forms.
सदेवोरगगन्धव्वे, सतिरिक्खे समाणुसे। णिब्भया णिव्विसेसा य, जगे वत्तेयऽणिच्चता।।11।। 11. विश्व में देव, सर्प, गन्धर्व, तिर्यक् और मनुष्य सृष्टि में अनित्यता समान रूप से निर्भय होकर भ्रमण करती है।
24. हरिगिरि अध्ययन 331