Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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15. मधुरायण
ऋषिभाषित156 का 15वां अध्ययन मधुरायण अर्हत् ऋषि से सम्बन्धित है। मधुरायण का उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त जैन और बौद्ध परम्परा में अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। अतः इनके जीवन और व्यक्तित्व के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कुछ कह पाना कठिन है। प्रस्तुत अध्याय में अनेक शब्द विशिष्ट अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, अतः जब तक उनके उन विशिष्ट अर्थों को स्पष्ट नहीं कर लिया जाता तब तक मधुरायण के उपदेशों को सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा सकता।
प्रस्तुत अध्याय के अर्थ के सन्दर्भ में न तो ऋषिभाषित के संस्कृत टीकाकार स्पष्ट हैं, और न उसके आधार पर मनोहर मुनि ने जो हिन्दी अनुवाद किया है वह भी अधिक स्पष्ट है। प्रस्तुत संस्करण का हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद भी भ्रान्ति रहित नहीं है। यद्यपि शुब्रिग ने अपने टिप्पण में तथा मनोहर मुनिजी ने अपनी व्याख्या में उसे स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। यद्यपि उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि इस 'अध्याय' का विषय अस्पष्ट है। मेरी दृष्टि में इस अध्याय के विषय को स्पष्ट करने के लिए इस अध्याय में प्रयुक्त कुछ विशिष्ट शब्दों को स्पष्ट करना होगा। इस अध्याय के मुख्यतः तीन शब्द 'सातादुक्ख' ‘दुक्ख' और 'संत' ये तीन शब्द ऐसे हैं जो अपने अर्थ का स्पष्टीकरण चाहते हैं। जहाँ तक ‘साताक्ख' के अर्थ का प्रश्न है संस्कृत टीकाकार और अन्य सभी ने उसे सुख से उत्पन्न दुःख माना है। वस्तुतः सुख का तात्पर्य यहाँ सुख की आकांक्षा ही लेना होगा। अतः ‘सातादुक्ख' का तात्पर्य है सुख की आकांक्षा से उत्पन्न दुःख। दूसरे शब्दों में सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए जिस व्यक्ति में आकांक्षाएँ जागृत हों वह व्यक्ति सातादुःख अभिभूत कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में सुख की आकांक्षा ही सातादुःख है। इसके विपरीत असाता दुःख से अभिभूत व्यक्ति का दुःख है : निराकांक्ष होने के कारण स्वाभाविक रूप से प्राप्त सांसारिक दुःख। सातादुःख का यह अर्थ करने पर प्रथम प्रश्न और उत्तर इस प्रकार बनता है--क्या सुख की आकांक्षा से उत्पन्न दुःख से अभिभूत व्यक्ति दुःख को प्रेरित करता है? या निमन्त्रित करता है? या निराकांक्ष कष्टों का जीवन जीने वाला व्यक्ति दुःखों को निमन्त्रित या प्रेरित करता है? इसका उत्तर यह दिया गया है कि सुख की आकांक्षा से उत्पन्न दुःखों से अर्थात् सांसारिक वासना के पीछे पागल व्यक्ति ही दुःखों को आमन्त्रित करता है। स्वाभाविक दुःखों से घिरा होने पर भी निराकांक्ष व्यक्ति दुःखों को आमन्त्रित नहीं करता अर्थात् कर्म बन्ध नहीं करता। वस्तुतः सुख की आकांक्षा करना ही दुःखों को निमन्त्रण देना है। सुख की आकांक्षा से दुःखी बना व्यक्ति ही दुःखों को निमन्त्रित करता है, न
ऋषिभाषित : एक अध्ययन 65