Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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13. तेरसं भयालिणामज्झयणं
किमत्थं णत्थि लावण्णताए? मेतेज्जेण भयालिणा अरहता इसिणा
बुइतं।
क्या कारण है कि तुम लावण्य (शरीर सौन्दर्य अथवा मैत्री) की रक्षा नहीं करते हो? इस पर अर्हत् मेतार्य (मैत्रेय) भयालि नामक ऋषि बोले
On being questioned why, he was negligent of his own looks, said Bhayali of Maidarya family :
णो हं खलु हो अप्पणो विमोयणटुताए परं अभिभविस्सामि, मा णं मा णं से परे अभिभूयमाणे ममं चेव अहिताए भविस्सति।
भो मुमुक्षु! मैं अपनी विमुक्ति के लिए दूसरे का पराभव नहीं करूंगा। नहीं, नहीं, वह पराभूत व्यक्ति मेरे लिए ही अहितकारी बनेगा।
Thou O aspirant hear me, I shall never seek ascent at another's expense. His decline is sure to be my ultimate undoing.
आताणाए उ सव्वेसिं, गिहिबूहणतारए।
संसारवाससन्ताणं, कहं मे हंतुमिच्छसि?।1।। __ 1. अभिभूत होने वाला संसारवास से सन्तुष्ट सभी गृहस्थ कहे जाने वाले तारकों/श्रावकों से पूछता है कि किस कारण से मेरा हनन करना चाहते हो?
1. Such an innocent hermit, ignorant of worldly guiles and steadfast in his norms, questions the confounded mundane folkwhat ails you folk to harm a soul like me?
सन्तस्स करणं णत्थि, णासतो करणं भवे।
बहुधा दिटुं इमं सुठु, णासतो भवसंकरो।।2।। 2. विद्यमान वस्तु का विधान (कारण) नहीं है और असत् (अविद्यमान वस्तु) का विधान (कारण) प्राप्त नहीं है। बहुधा यह भली-भांति देखा गया है कि भव-परम्परा की प्राप्ति असत् नहीं है।
2. Things extant reveal no primordial cause and the nonextant ones have causes beyond anybody's grasp. It is a
13. मैत्रेय भयालि अध्ययन 289