Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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पावं परस्स कुव्वन्तो, हसती मोहमोहितो ।
मच्छो गलं सन्तो वा, विणिघातं ण पस्सती ।।11।।
11. मोहग्रस्त जीव दूसरे (की हानि ) के लिए पाप करता हुआ हँसता है। मछली (आटे की गोली को) गले में उतारते समय नाशकारी काँटे को नहीं देखती है।
11. A befuddled sadist commits sins like a fish totally unaware of the angling rod while swallowing the bait.
पच्चुप्पण्णरसे गिद्धो, मोहमल्लपणोल्लितो ।
दित्तं पावति उक्कण्ठं, वारिमज्झे व वारणा ।।12।।
12. जैसे जल में रहा हुआ हाथी अत्यधिक उत्तेजित हो जाता है वैसे ही मोहमल से प्रेरित आत्मा वार्तमानिक भोगों में अत्यासक्त और उत्तेजित हो जाता है।
12. As an elephant frolicking in water sport is utterly wanton, so is a voluptuous being engrossed in present lust.
परोवघाततल्लिच्छो,
दप्पमोहमलुद्धरो। सीहो जरो दुपाणे वा, गुणदोसं ण विन्दती ।।13।।
13. दूसरे का घात करने में लिप्सु व्यक्ति अहंकार और मोहमल से उद्धत होने के कारण गुण और दोष से शून्य हो जाता है। जैसे जर्जर - वृद्ध सिंह उन्मत्त होकर निर्बल प्राणियों का वध करते समय विवेक शून्य हो जाता है।
13. A ruthless vain being is wantonly unconcerned and is morally vacuous. He is like a senile tiger marauding weaklings in the forest.
सवसो पावं पुरोकिच्चा, दुक्खं वेदेति दुम्मती । आसत्तकण्ठपासो वा, मुक्कधारो दुहट्टिओ ।।14।।
14. पूर्वकृत पाप-कर्म के वशीभूत होकर दुर्मति जीव दुःख का अनुभव करता है। वह गले में फंदा कस कर दुःख और विपदाओं की धारा में अपने आप को छोड़ देता है।
14. Feeling of misery is the direct outcome of moral lethargy and accumulated sins. One is like a neck-bound victiin of one's own doing, immersed in a watery grave.
पावं जे उ पकुव्वन्ति, जीवा साताणुगामिणो । वड्ढती पावकं तेसिं, अणग्गाहिस्स वा अणं । । 15 ।।
298 इसिभासियाई सुत्ताई