Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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आकर्षित किया है और हम आशा करते हैं कि भविष्य में जो आगम पाठों का सम्पादन होगा, उनमें इन तथ्यों पर अधिक ध्यान दिया जायेगा, क्योंकि ग्रन्थ का भाषायी स्वरूप उसके काल-निर्णय में बहुत कुछ सहायक होता है, अतः विद्वानों का यह दायित्व है कि ग्रन्थों की भाषा के प्राचीनतम स्वरूप को सुरक्षित रखें।
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक और ज्ञाताधर्मकथा के अनेक गाथांश, गद्यांश और शब्द ऋषिभाषित में भी उपलब्ध हैं, किन्तु दोनों के भाषायी स्वरूप के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऋषिभाषित का पाठ भाषा की दृष्टि से प्राचीन है। उदाहरण के रूप में ऋषिभाषित के तेतलीपुत्त नामक अध्ययन और ज्ञाता का तेयलिपुत्त नामक अध्ययन के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऋषिभाषित की भाषा 'त' प्रधान और अधिक प्राचीन ऋषिभाषित की भाषा में लोप की प्रवृत्ति अत्यल्प है। इसी प्रकार आचाराग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक में जहाँ आत्मा के लिये 'आया' शब्द का प्रयोग है वहीं, ऋषिभाषित में एक-दो स्थलों को छोड़कर सर्वत्र 'आता' शब्द का प्रयोग है। इससे इसकी भाषायी प्राचीनता सुस्पष्ट हो जाती है। उपसंहार
__इस प्रकार हम देखते हैं कि अपनी भाषा और विषय-वस्तु दोनों की दष्टि से ऋषिभाषित प्राकृत वाङ्मय का प्राचीनतम ग्रन्थ सिद्ध होता है। जैसा कि हम पूर्व में सिद्ध कर चुके हैं—'यह ग्रन्थ सम्पूर्ण पालि और प्राकृत साहित्य में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के कुछ अर्थों को छोड़कर प्राचीनतम एवं ई.पू. पाँचवीं शती का ग्रन्थ है।' इस ग्रन्थ का महत्त्व न केवल इसकी प्राचीनता की दृष्टि से है, अपितु इसमें प्राचीनकालीन ऋषियों एवं उनकी मान्यताओं के जो उल्लेख मिलते हैं, वे भी ऐतिहासिक दष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें अनेक ऐसे प्राचीन ऋषियों के उल्लेख मिलते हैं, जिनके सम्बन्ध में अब अन्य कोई जानकारी का स्रोत ही नहीं रह गया है। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता इसका साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से मुक्त होना है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ का निर्माण जहाँ एक ओर जैन धर्म की सहिष्णु और उदारदृष्टि का परिचायक है वहाँ दूसरी
ओर यह इस बात का भी सूचक है कि सम्पूर्ण भारतीय आध्यात्मिक धारा अपने मूल में एक ही है, चाहे वह आगे चलकर औपनिषदिक, बौद्ध, जैन, आजीवक, वैदिक आदि परम्पराओं में विभक्त हो गई हो। ऋषिभाषित ही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें औपनिषदिक ऋषियों, ब्राह्मण परिव्राजकों, आजीवक श्रमणों, बौद्ध भिक्षुओं और जैन मुनियों के उपदेशों को एक ही साथ संकलित किया गया 114 इसिभासियाई सुत्ताई