Book Title: Prayaschitta Samucchaya
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 16
________________ १४ प्रायश्चित्त-समुच्चय । 'भयत्नपूर्वक दोष सेवन करनेवाला ४ इन चारोंको एक एक विरलनकर.ऊपर स्थापन करना। इन्हीं सहेतुकादिकोंके विपतो अहेतुक, असकृत्कारी, असानुवीची और अभयत्नवान् ये संख्यामें दो दो हैं इनको दो दोका पिंड बनाकर नोचे स्थापन करना पश्चात इनका परस्परमें गुणाकार करना इस तरह करने पर सोलह संख्या निकल आती है। ___ संदृष्टि-३ ३ ३ ३ - १६ इन भंगोंको निकालनेकी तरकीव बताने वालो दो गाथाएं मूलाचारमें हैं वे यहां दी जाती हैं। दोषगणाणं संखा पत्थारो अक्खसकमो चैव। . : णटुं तह उदिदं पंचवि वत्थूणि णेयाणि ॥ १॥. . .. दोपोंको संख्या, प्रस्तार,, अक्षसंक्रम, नष्ट और उद्दिष्ट ये 'पांच वस्तुके वर्णनमें जानना । दोषोंके भेदोंको गिनना संख्याः है। इनका स्थापन करना प्रस्तार हैं । भेदोंका परिवर्तन अनसंक्रम है। संख्या रखकर भेद निकालना. नष्ट है और भेद रखकर संख्या निकालना उद्दिष्ट है। . . . . सव्वें वि पुत्रभंगा उवरिमभंगेसु एकमेक्कसु। । मेंलंति त्ति यं कमसो गुणिए उपज्जये संखा ॥२॥ . . सभी पहले पहले के भंग ऊपर ऊपरके सभी एक एक भंगमें. १.। दोपगणानां संख्या प्रस्तारः अझसंक्रमश्चैध । नष्टं तथा उद्दिष्ट पंचापि वस्तुनि ज्ञेयानि ! : .

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