Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) यहां अदाप कहकर दाप लवने भ्वादि और दैप् शोधने (भ्वादि) धातुरूपों की घु संज्ञा का निषेध किया है। इससे दाप लवने-दातं बर्हिः । कटा हुआ दर्भ। दैप शोधने अवदातं मुखम् । शुद्ध मुख। यहां घु संज्ञा नहीं होती। घु संज्ञा न होने से यहां दो दद् घो:' (७।४।४७) से दा के स्थान में दद्-आदेश नहीं होता है। आद्यन्तवद्भाव:
आद्यन्तवदेकस्मिन् ।२०। प०वि०-आदि-अन्तवद् अव्ययपदम् । एकस्मिन् ७१।
स०-आदिश्च अन्तश्च तौ आद्यन्तौ, तयो:-आद्यन्तयोः, आद्यन्तयोरिव आद्यन्तवत् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अन्वय:-एकस्मिन् आद्यन्तवत् । अर्थ:-एकस्मिन् वर्णेऽपि आदिवद् अन्तवच्च कार्यं भवति उदा०-(आदिवत्) औपगवः । (अन्तवत्) आभ्याम् ।
आर्यभाषा-अर्थ-(एकस्मिन्) एक वर्ण में भी (आदि-अन्तवत्) आदि और अन्त के समान कार्य होता है। व्याकरणशास्त्र में आदि और अन्त को कहे हुये कार्य एक वर्ण में सिद्ध नहीं हो सकते, इसलिए यह अतिदेश-तुल्यता विधान आरम्भ किया गया है। . उदा०-(आदिवत्) औपगवः । उपगु का पुत्र । (अन्तवत्) आभ्याम् । इन दोनों के
द्वारा।
सिद्धि-(१) औपगवः। उपगु+अण् । उपगु+अ। औपगो+अ। औपगव+अ। औपगव+सु । औपगवः । यहां जैसे आधुदात्तश्च (३१॥३) से तव्य आदि प्रत्यय आधुदात्त होते हैं। वैसे 'अण्' प्रत्यय का एक वर्ण 'अ' भी इस अतिदेश से आधुदात्त होता है।
(२) आभ्याम् । इदम्+भ्याम् । अ+भ्याम् । आ+भ्याम् । आभ्याम् । यहां जैसे 'सुपि च' (७।३।१०८) से रामाभ्याम् आदि में अकारान्त पद को दीर्घ होता है, वैसे 'आभ्याम् में भी एक वर्ण 'अ' को इस अतिदेश से अकारान्त मानकर दीर्घ हो जाता है।
जैसे लोक में देखा जाता है कि देवदत्त का एक ही पुत्र है। उसका वही आदिम, वही मध्यम और वही अन्तिम पुत्र होता है, वैसे व्याकरणशास्त्र में एक वर्ण को भी आदिम और अन्तिम वर्ण मानकर कार्य किया जाता है। घ-संज्ञा
तरप्त मपौ घः।२१। प०वि०-तरप्-तमपौ १।२ घ: ११ स०-तरप् च तमप् च तौ-तरप्-तमपौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
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