Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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__ प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः उदा०-यवेभ्यो गां वारयति । यवेभ्यो गां निवर्तयति।
आर्यभाषा-अर्थ-(वारणार्थानाम्) निवारण अर्थवाली धातुओं के प्रयोग में (इप्सित:) जो पदार्थ अभीष्ट है, उस कारक की (अपादानम्) अपादान संज्ञा होती है।
उदा०-यवेभ्यो गां वारयति। वह जौ के खेत से गाय को हटाता है। यवेभ्यो गां निवर्तयति। वह जौ के खेत से गाय को मोड़ता है।
सिद्धि-देवदत्तो यवेभ्यो गां वारयति । देवदत्त जौ के खेत से गौ को हटाता है। यहां वारयति' के प्रयोग में देवदत्त को 'जौ का खेत' अभीष्ट पदार्थ है, प्रिय है, वह उसमें हानि नहीं चाहता है, अत: उस कारक की अपादान संज्ञा होती है और उसमें 'अपादाने पञ्चमी' (२।३।२८) से पञ्चमी विभक्ति हो जाती है। येनादर्शनमिच्छति
(५) अन्तर्की येनादर्शनमिच्छति।२८। प०वि०-अन्तर्हो ७।१ निमित्तसप्तमी। येन ३१ अदर्शनम् ११ इच्छति ‘क्रियापदम्'।
स०-न दर्शनमिति अदर्शनम् (नञ्तत्पुरुषः) । अनु०-'अपादानम्' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अन्तौं येनादर्शनमिच्छति तत् कारकमपादानम् ।
अर्थ:-अन्तर्धी अन्तर्धाननिमित्तम्, येनात्मनोऽदर्शनमिच्छति, तत्कारकमपादानसंज्ञकं भवति ।
उदा०-उपाध्यायाद् अन्तर्धत्ते। उपाध्यायाद् निलीयते।
आर्यभाषा-अर्थ-(अन्तर्धा) अन्तर्धान के निमित्त यिन) जिससे वह (अदर्शनम्) अपना अदर्शन (इच्छति) चाहता है, (कारकम्) उस कारक की (अपादानम्) अपादान संज्ञा होती है।
उदा०-उपाध्यायाद् अन्तर्धत्ते । अपाध्याय से अन्तर्धान होता है। उपाध्यायाद् निलीयते। उपाध्याय से छुपता है।
सिद्धि-छात्र उपाध्यायादन्तर्धत्ते। छात्र उपाध्याय से अन्तर्धान होता है। यहां छात्र अन्तर्धान के कारण उपाध्याय से अपना अदर्शन चाहता है, अत: उसकी अपादान संज्ञा होती है और उसमें 'अपादाने पञ्चमी' (२।३।२८) से पञ्चमी विभक्ति हो जाती है।
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