Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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अनु०-एकवचनं द्वन्द्व इति चानुवर्तते ।
पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
अन्वयः-अनिरवसितानां शूद्राणां द्वन्द्व एकवचनम् ।
अर्थ:- अनिरवसितानाम् = पात्राद् अबहिष्कृतानां शूद्रवाचिनां शब्दानां द्वन्द्वसमास एकस्यार्थस्य वाचको भवति ।
उदा०-तक्षाणश्च अयस्काराश्च एतेषां समाहारः तक्षायस्कारम्। रजकाश्च तन्तुवायाश्च एतेषां समाहारो रजकतन्तुवायम् ।
आर्यभाषा-अर्थ- (अनिरवसितानाम् ) पात्र से अबहिष्कृत ( शूद्राणाम् ) शूद्रवाची शब्दों का ( द्वन्द्व:) द्वन्द्व समास ( एकवचनम् ) एक अर्थ का वाचक होता है ।
उदा०-तक्षाणश्च अयस्काराश्च एतेषां समाहारः तक्षायस्कारम् । खाती और लुहारों का समुदाय। रजकाश्च तन्तुवायाश्च एतेषां समाहारो रजकतन्तुवायम् । धोबी और जुलाहों का समुदाय ।
सिद्धि-तक्षायस्कारम् ।
तक्षायस्कार+सु ।
तक्षायस्कारम् ।
यहां पात्र से अबहिष्कृत शूद्रवाची तक्षा और अयस्कार शब्दों का द्वन्द्व समास है । इस सूत्र से इनके द्वन्द्व समास में एकवचन का विधान किया गया है। ऐसे ही- रजकतन्तुवायम् । विशेष - धर्मशास्त्रकारों ने मनुष्य जाति के आर्य और दस्यु दो भेद किये हैं। आर्य
के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार भेद हैं। यहां शूद्र के दो भेद बतलाये गये हैं । जो मैले-कुचैले रहते हैं तथा मांस आदि भक्षण करनेवाले हैं। उन्हें ब्राह्मण आदि वर्ण के लोग भोजन के लिये पात्र देना भी उचित नहीं समझते, ऐसे शूद्रों को निरवसित (बहिष्कृत ) कहा गया है और जो अपनी कला से ब्राह्मण आदि वर्णों की सेवा करते हैं और शरीर तथा वस्त्र आदि से भी शुद्ध रहते हैं, उन्हें अनिरवसित (अबहिष्कृत ) कहा गया है। शूद्र मनुष्य जाति का ब्राह्मण आदि वर्णों के समान एक अनिवार्य अंग है। वह समाज में शरीर के पांव अंग के समान है। हेय अथवा घृणापात्र नहीं है। वह उक्त तीन वर्णों का सहायक है। गवाश्वादयः
भवन्ति ।
(१०) गवाश्वप्रभृतीनि च ।११।
प०वि०-गवाश्व-प्रभृतीनि १ । ३ च अव्ययपदम् ।
स०-गवाश्वः प्रभृतिर्येषां तानीमानि - गवाश्वप्रभृतीनि (बहुव्रीहि: ) । अनु० - एकवचनं द्वन्द्व इति च सम्बध्यते ।
अर्थ:- गवाश्वप्रभृतीनि च कृतैकवद्भावानि द्वन्द्वरूपाणि साधूनि
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तक्षन्+जस्+अयस्कार+जस् ।
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