Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) एनेन । इदम्+टा। एन+इन । एनेन। यहां टा-प्रत्यय परे होने पर पूर्ववत् एन-आदेश है। (३) एनयोः । इदम्+ओस् । एन+ओस् । एने+ओस् । एनयो। यहां ओस् प्रत्यय के परे होने पर पूर्ववत् एन-आदेश होता है।
(४) एतद् शब्द के स्थान पर जो एन-आदेश होता है उसकी सिद्धि भी ऐसे ही समझें।
आर्धधातुकप्रकरणम् आर्धधातुकाधिकार:
(१) आर्धधातुके।३५॥ वि०-आर्धधातुके ७।१, विषयसप्तम्येषा।
अर्थ:-'आर्धधातुके' इत्यधिकारोऽयम्, ‘ण्यक्षत्रियार्षजितो यूनिलुगणिो :' (२।४।५८) यावत् । यदित ऊर्धं प्रवक्ष्यामस्तदार्धधातुके विषये तद् वेदितव्यम् । यथास्थानमुदाहरिष्यामः ।
आर्यभाषा-अर्थ-(आर्धधातुके) आर्धधातुके इसका ‘ण्यक्षत्रियार्षजितो यूनिलुगणिोः ' (२।४।५८) सूत्र तक अधिकार है। पाणिनिमुनि इससे आगे जो कहेंगे उसे आर्धधातुक विषय में जानें। इसके उदाहरण यथास्थान दिये जायेंगे।
विशेष-(१) आर्धधातुक-धातु से सार्वधातुक और आर्धधातुक नामक दो प्रकार के प्रत्यय होते हैं। 'तिशित सार्वधातुकम् (३।४।११३) जो तिङ् और शित् प्रत्यय हैं, उन्हें सार्वधातुक कहते हैं। तिप्, तस्, झि, सिप, थस्, थ, मिप्, वस्, मस्, त, आताम्, झ, थास्, आथाम्, ध्वम्, इट्, वहि, महिङ् इन १८ प्रत्ययों को तिङ् कहते हैं। जिन प्रत्ययों का श् इत् (लोप) हो जाता है उन 'शप्' आदि प्रत्ययों को शित् कहते हैं। आर्धधातुकं शेष:' (३।४।११४) तिङ् और शित् से भिन्न तव्यत् आदि प्रत्ययों का नाम आर्धधातुक है।
(२) विषय सप्तमी-व्याकरणशास्त्र में निमित्त सप्तमी, परसप्तमी और विषय सप्तमी ये तीन प्रकार की सप्तमी विभक्तियां हैं। यहां 'आर्धधातुके विषय सप्तमी है। आर्धधातुक विषय की विवक्षा होने पर वक्ष्यमाण कार्य हो जाते हैं, तत्पश्चात् उससे यथाप्राप्त प्रत्यय होते हैं। अद् (जग्धि)
(२) अदो जग्धिर्व्यप् ति किति।३६। प०वि०-अद: ६१ जग्धि: ११ ल्यप् ७१ लुप्त-सप्तम्येषा, ति ७१ किति ७।१।
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