Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 564
________________ ५२३ द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः (२) त्राध्वम् । त्रै+लोट् । त्रै+शप्+ध्वम्। त्रा+o+ध्वम्। बाध्वम् । यहां विधि आदि अर्थों में त्रै पालने' (भ्वा०आ०) धातु से लोट् च' (३।३।१६२) से लोट्' प्रत्यय है। यहां वैदिक प्रयोग में भ्वादि धातु से इस सूत्र से 'शप्' प्रत्यय का लुक् हो जाता है। (३) छन्द में बहुलवचन से जहां शप्' प्रत्यय का लुक' विधान किया गया है वहां लुक नहीं होता है और जहां लुक् विधान नहीं किया है, वहां लुक् हो जाता है। यह उपरिलिखित उदाहरणों में स्पष्ट है। यप्रत्ययस्य (१७) यङोऽचि च७४। प०वि०-यङ: ६१ अचि ७१ च अव्ययपदम् । अनु०-लुक्, बहुलम् इति चानुवर्तते। अन्वय:-यङश्च बहुलं लुगचि। अर्थ:-यङ्प्रत्ययस्य च बहुलं लुग् भवति, अचि प्रत्यये परतः । उदा०-(१) अचि-लोलुव: । पोपुव: । सनीस्रंस: । दनीध्वंस: । (२) बहुलग्रहणाद् अनच्यपि लुग् भवति-शाकुनिको लालपीति । दुन्दुभिर्वावदीति। आर्यभाषा-अर्थ-(यङ:) यङ्-प्रत्यय का (च) भी (बहुलम्) बहुलता से (लुक्) लोप हो जाता है (अचि) अच्-प्रत्यय. परे होने पर। उदा०-लोलुवः । बहुत काटनेवाला। पोपुवः । बहुत पवित्र करनेवाला। सनीस्रसः । बहुत नष्ट करनेवाला। दनीध्वंस: । बहुत ध्वंस करनेवाला। __यहां बहुल का ग्रहण करने से अच्-प्रत्यय से अन्यत्र भी यङ्-प्रत्यय का लुक् हो जाता है-शाकुनिको लालपीति । पक्षियों का शिकारी बहुत शब्द करता है। दुन्दुभिर्वावदीति। ढोल बहुत बजता है। सिद्धि-(१) लोलुवः । लुञ्+यङ्। लू+लू+य। लोलूय+अच् । लोलूo+अ। लोल उवङ्+अ । लोलुव+सु। लोलुवः । यहां लुज छेदने (क्रयाउ०) धातु से क्रियासमभिहार अर्थ में 'धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ् (३।१।२२) से यङ् प्रत्यय है। 'सन्यडो:' (६।१।९) से धातु को द्वित्व होता है। यङन्त लोलुव' धातु से 'नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यच:' (३।१।१३४) से अच्’ प्रत्यय होता है। अच्-प्रत्यय के परे होने पर इस सूत्र से यङ्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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