Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
View full book text
________________
__ द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः
३०३ (शलाका) शलाकाभिर्न तथा वृत्तं यथापूर्वं जय इति शलाकापरि । ये शलाकायें वैसे नहीं पड़ी जैसे कि पहले जीत में पड़ी थी, अत: यह शलाकापरि' है। (संख्या) एकपरि। एक अक्ष/शलाका ठीक नहीं पड़ी। द्विपरि। दो अक्ष/शलाका ठीक नहीं पड़ी। त्रिपरि। तीन अक्ष/शलाका ठीक नहीं पड़ी। चतुष्परि। चार अक्ष/शलाका ठीक नहीं पड़ी।
सिद्धि-अक्षपरि । अक्ष+सु+परि+टा। अक्षपरि+सु। अक्षपरि। पूर्ववत् ।
विशेष-यह समास जुआ खेलने के व्यवहार में अभीष्ट है। एक पञ्चिका नामक द्यूत है। जो पांच पासों अथवा पांच शलाकाओं से खेला जाता है। उसमें पांच पासे सीधे अथवा मूधे पड़ते हैं तब डालनेवाला जुआरी जीतता है। उनके अन्यथा पड़ने पर जुआरी को चोट लगती है, तब 'अक्षपरि' आदि कहा जाता है।
अधिकार:
(७) विभाषा|११| प०वि०-विभाषा ११।
अर्थ:-'विभाषा' इत्यधिकारोऽयम्, 'चार्थे द्वन्द्वः' (२।२।२९) इति यावत्। महाविभाषेयम्। अनेन समासप्रकरणे पक्षे वाक्यमपि भवति ।
आर्यभाषा-अर्थ-(विभाषा) विभाषा' यह अधिकार सूत्र है। इसका अधिकार 'चार्थे द्वन्द्वः' (२।२।२९) तक है। यह महाविभाषा है। इससे समास प्रकरण में पक्ष में विग्रहवाक्य भी बना रहता है।
अपादय:
(८) अपपरिबहिरञ्चवः पञ्चम्या।१२। प०वि०-अप-परि-बहिर्-अञ्चव: १।३ पञ्चम्या ३।१ ।
स०-अपश्च परिश्च बहिश्च अञ्चुश्च ते-अपपरिबहिरञ्चव: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-'सुप्, सह सुपा अव्ययीभावः' इत्यनुवर्तते ।
अन्वय:-अपपरिबहिरञ्चव: सुप: पञ्चम्या सह विभाषा समासोऽव्ययीभावः।
अर्थ:-अपपरिबहिरञ्चव: सुबन्ता: पञ्चम्यन्तेन समर्थेन सुबन्तेन विकल्पेन समस्यन्ते, अव्ययीभावश्च समासो भवति।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org