Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी - प्रवचनम्
उदा०- (तृच् ) पुरां भेत्ता । अपां स्रष्टा । वज्रस्य भर्ता । ( अक: ) ओदनस्य भोजक: । सक्तूनां पायकः ।
आर्यभाषा-अर्थ- (कर्मणि) 'कर्तृकर्मणोः कृति:' (२।३।६५) से कृदन्त के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति का विधान किया गया है उस सुबन्त का (कर्तीर) कर्ता अर्थ में विद्यमान (तृजकाभ्याम्) तृच् और अक प्रत्ययान्त समर्थ सुबन्तों के साथ समास (न) नहीं होता है।
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उदा०- (तृच्) पुरां भेत्ता । नगरों को तोड़नेवाला इन्द्र । अपां स्रष्टा । जल की सृष्टि करनेवाला वरुण । वज्रस्य भर्ता । वज्र को धारण करनेवाला इन्द्र । ( अक) ओदनस्य भोजक: । भात को खानेवाला देवदत्त । सक्तूनां पायक: । सत्तुओं को पीनेवाला यज्ञदत्त । सिद्धि-(१) पुरां भेत्ता । यहां 'भिदिर् विदारणें' (रुधा०प०) धातु से 'ण्वुल्तृचौ (३ । १ । १३३) से कृत्संज्ञक तृच् प्रत्यय है। इसके प्रयोग में 'पुराम्' में 'कर्तृकर्मणोः कृति (२/३/६५) से षष्ठी विभक्ति है । प्रकृत सूत्र से उस षष्ठी विभक्ति के समास का प्रतिषेध किया गया है।
(२) ओदनस्य भोजक: । यहां 'भुज पालनाभ्यवहारयो:' (अदा०आ०) से कर्ता अर्थ में 'च' (३1९ | १३३ ) ण्वुल् ( अक) प्रत्यय है। उसके योग में 'ओदनस्य' में पूर्ववत् ( २/३ । ६५) षष्ठी विभक्ति है । प्रकृत सूत्र से उसके प्रयोग में षष्ठी समास का प्रतिषेध किया गया है।
कर्तरि षष्ठी (अकेन) -
(६) कर्तरि च |१६|
प०वि० - कर्तरि ७ । १ च अव्ययपदम् ।
अनु- षष्ठी, न इति च, 'तृजकाभ्याम्' इत्यस्माच्च 'अकेन' इत्यनुवर्तते ।
अन्वयः - कर्तरि षष्ठी सुप् च अकेन सुपा सह ।
अर्थ:- कर्तरि या षष्ठी तदन्तं सुबन्तं च अकान्तेन समर्थेन सुबन्तेन सह न समस्यते ।
उदा० - भवत: शायिका । भवत आसिका । भवतोऽग्रग्रासिका ।
आर्यभाषा-अर्थ- (कर्तीरे) कर्ता कारक में जो (षष्ठी) षष्ठी विभक्ति है उस समर्थ सुबन्त का (च) भी (अकेन) अक-प्रत्ययान्त समर्थ सुबन्त के साथ समास (न) नहीं होता है।
उदा० - भवत: शायिका । आपकी सोने की बारी (पर्याय) है । भवत आसिका । आपकी बैठने की बारी है। भवतोऽग्रग्रासिका । आपकी पहले खाने की बारी है।
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