Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा०- ( अधिक) उप खार्यां द्रोणः । द्रोण से खारी अधिक है। उप निष्के कार्षापणम् । कार्षापण से निष्क अधिक है। (हीन) उप शाकटायनं वैयाकरणाः । सब वैयाकरण लोग शाकटायन से कम हैं। उप दयानन्दं वेदभाष्यकारा: । सब वेदभाष्यकार दयानन्द से हीन हैं ।
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सिद्धि - (१) उप खार्यां द्रोण: । द्रोण से खारी परिमाण अधिक है। यहां 'उप' निपात की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होने से पूर्ववत् द्वितीया विभक्ति प्राप्त होती है, किन्तु यस्मादधिकं यस्य चेश्वरवचनं तत्र सप्तमी (३1३1९ ) से कर्मवचनीय के योग में सप्तमी विभक्ति हो जाती है।
आठ मुट्ठी अनाज = १ कुंचि । ८ कुंचि = १ पुष्कल । ४ पुष्कल = १ आढक। ४ आढक = १ द्रोण । १६ द्रोण = १ खारी ।
(२) उप निष्के कार्षापणम् । कार्षापण से निष्क अधिक है। यहां भी पूर्ववत् सब कार्य होता है। कार्षापण = ताम्बे का १६ माशे का सिक्का । निष्क= सोने का १६ माशे का सिक्का ।
यहां अपेक्षा सम्बन्ध में षष्ठी शेष' (२/४/५० ) षष्ठी विभक्ति प्राप्त थी, कर्मवचनीय संज्ञा होने से सप्तमी विभक्ति होती है। अप-परी
(६) अपपरी वर्जने । ८८ ।
प०वि०-अप-परी १ ।२ वर्जने ७ । १ ।
स०-अपश्च परिश्च तौ - अपपरी (इतरेतरयोगद्वन्द्वः ) । अन्वयः - वर्जनेऽपपरी निपातौ कर्मवचनीयौ ।
अर्थ:- वर्जनेऽर्थे अप- परी निपातौ कर्मप्रवचनीयसंज्ञकौ भवतः । उदा०- (अप) अप त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः । (परि) परि त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः ।
प्रकृतेन सम्बन्धिना, कस्यचिदनभिसम्बन्धे वर्जनमुच्यते ।
आर्यभाषा - अर्थ - (वर्जने) निषेध अर्थ में (अप-परी) अप और परि निपातों की (कर्मप्रवचनीयः) कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है।
उदा०
- (अप) अप त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः । त्रिगर्त को छोड़कर इन्द्रदेव ने वर्षा की । (परि) परि त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः । त्रिगर्त को छोड़कर इन्द्रदेव ने वर्षा की। त्रिगर्त - भारत के उत्तर-पश्चिम का एक देश जालन्धर “वर्तमान पंजाब का उत्तर-पूर्वी भाग जो चम्बा से कांगड़ा तक फैला हुआ है, प्राचीन त्रिगर्त देश था । सतलुज,
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