Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः
४६ श्नम्' (३।१।७८) से 'श्नम्' के मित् होने से रुध धातु के अन्तिम अच् से परे 'श्नम्' होता है और 'झषस्तथोोऽध:' (८।२।४०) से तिप् प्रत्यय के तकार को धकार आदेश, 'झलां जश् झषि' (८।४।५३) से रुध् के धकार को जश् दकार आदेश और 'रषाभ्यां नो ण: समानपदें (८।४।१) से नकार को णकार आदेश होता है।
(२) मुञ्चति । मुच्+लट् । मुच्+श+तिप् । मुच्+अ+ति। मुनुम् च+अ+ति । मुन् च+अ+ति। मु“च+अ+ति। मुञ् च+अ+ति। मुञ्चति। यहां मच्न मोचने (तु०प०) धातु से तुदादिभ्यः शः' (३।१।७७) से 'श' विकरण प्रत्यय, शे मुचादीनाम्' (७।१।५९) से नुम् आगम, 'नश्चापदान्तस्य झलि' (८।३।२४) से न् को अनुस्वार और 'अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः' (८।४।५८) से अनुस्वार को परसवर्ण अकार होता है। नुम्' के मित् होने से वह 'मुच्' धातु के अन्तिम अच् से परे होता है।
(३) पयांसि । पयस्+जस् । पयस्+शि। पय नुम् स्+इ। पय न् स्+इ। पयान् स्+इ। पयांस+इ। पयांसि । यहां नपुंसकस्य झलचः' (७१११७२) से पयस् शब्द को नुम् आगम उसके अन्तिम अच् से परे होता है। सान्तमहत: संयोगस्य' (६।४।१०) से अंग को दीर्घ तथा पूर्ववत् नकार को अनुस्वार होता है।
आदेशप्रकरणम् हस्वादेशः
(१) एच इग्घ्रस्वादेशे।४७। प०वि०-एच: ६।१ इक् ११ ह्रस्वादेशे ७।१।
स०-ह्रस्वश्चासौ आदेश:, ह्रस्वादेश:, तस्मिन्-ह्रस्वादेशे (कर्मधारय तत्पुरुषः)।
अन्वय:-एचो ह्रस्वादेशे इक्।। अर्थ:-ह्रस्वादेशे कर्तव्ये एच: स्थाने इक्-आदेशो भवति । उदा०-ओ (उ) उपगु । ऐ (इ) अतिरि। औ (उ) अतिनु ।
आर्यभाषा-अर्थ-(एच:) एच् के स्थान में (ह्रस्वादेशे) ह्रस्व आदेश करने में (इक्) इक् ही होता है, अन्य नहीं।
उदा०-ओ (उ) उपगु । गौ के समीप । ऐ (इ) अतिरि। धन को जीतनेवाला। औ (उ) अतिनु। नौका को लांघनेवाला।
सिद्धि-(१) उपगु । उप+गो। उपगो। उपगु+सु । उपगु। गो: समीपमिति उपगु। हां 'अव्ययं विभक्तिसमीप०' (२।१।६) से अव्ययीभाव समास है। गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य' १।२।४८) से गो' के ओकार को उकार' ह्रस्वादेश (उ) होता है।
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