Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
अर्थ - लज्जा, सत्ता, स्थिति, जागरण, वृद्धि, क्षय, भय, जीवन, मरण, शयन, क्रीडा रुचि और दीप्ति अर्थवाली धातु अकर्मक होती हैं।
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(२) जहां कर्म, कर्ता बनकर प्रयुक्त होता है, उसे 'कर्मकर्तृवाच्य' कहते हैं । जैसे 'लूयते केदारः स्वयमेव । खेत अपने आप कट रहा है। यहां 'केदार' शब्द 'कर्मकर्ता' है। जहां कर्म, कर्ता बन जाता है, वहां भी धातु से आत्मनेपद ही होता है। जहां केवल शुद्ध कर्ता होता है, वहां धातु से परस्मैपद का विधान किया गया है। इस विषय को निम्नलिखित रेखाचित्र से समझ लेवें ।
धातु
सकर्मक
लकार
कर्ता कर्म
कर्मव्यतिहारे कर्तृवाच्ये
कर्मकर्ता
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अकर्मक
लकार
भाव
(३) कर्तरि कर्मव्यतिहारे । १४ ।
प०वि० - कर्तरि ७ । १ कर्म - व्यतिहारे ७।१।
सo - कर्मणो व्यतिहार इति कर्मव्यतिहार:, तस्मिन् - कर्मव्यतिहारे ( षष्ठीतत्पुरुषः) । व्यतिहार : - विनिमयः ।
अन्वयः - कर्मव्यतिहारे कर्तरि धातोरात्मनेपदम् ।
अर्थ :- कर्मव्यतिहारे-क्रियाया विनिमयेऽर्थे कर्तृवाच्ये धातोरात्मनेपदं भवति । कर्मशब्दोऽत्र क्रियावाची । कर्मव्यतिहारः = परस्परक्रियाकरणम् । उदा० - व्यतिलुनते । व्यतिपुनते ।
कर्ता
आर्यभाषा - अर्थ - (कर्मव्यतिहारे) क्रिया-विनिमय अर्थ में विद्यमान धातु से (कर्तीर) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। यहां 'कर्मव्यतिहार' शब्द में 'कर्म' शब्द क्रियावाची है । 'व्यतिहार' का अर्थ विनिमय है। जहां अन्य सम्बन्धिनी क्रिया को कोई अन्य करता है और इतर सम्बन्धी क्रिया को इतर करता है उसे कर्मव्यतिहार कहते हैं। - व्यतिलुनते । परस्पर काटते हैं। व्यतिपुनते । परस्पर पवित्र करते हैं। सिद्धि - (१) व्यतिलुनते । व्यति+लू+लट् । व्यति+लू+झ । व्यति+लू+अत । व्यति+लू+श्ना+अत । व्यति+लू+ना+अत । व्यति+लू+न्+अते । व्यतिलुनते।
उदा०
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