Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
(२) वर्तिष्यते। वृत्+लृट् । वृत्+स्य+त। वृत्+इट्+स्य+त। वर्त्+इ+ष्य+ते ।
वर्तिष्यते ।
यहां 'वृतु वर्तने' ( वा०आ०) धातु से पूर्ववत् 'लृट्' प्रत्यय और उसके स्थान में पक्ष में आत्मनेपद 'त' आदेश होता है । पूर्ववत् 'स्य' प्रत्यय और उसको 'आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (७/२/३५) से 'इट्' आगम होता है।
(३) अवर्त्स्यत् । वृत्+लृङ् । अट्+वृत्+स्य+तिप् । अ+वृत्+स्य+त्। अ+वर्त्+स्य+त्। अवर्त्स्यत् ।
यहां 'वृतु वर्तने' (भ्वा०आ०) धातु से 'लिनिमित्ते लृङ् क्रियातिपत्तौ (३ । ३ । १३९) से 'लुङ्' प्रत्यय और उसके स्थान में परस्मैपद तिप्' आदेश होता है। 'स्यतासी लृलुटोः' (३।१।३३) से 'स्य' प्रत्यय और 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७/३।८६ ) से 'वृत्' धातु को लघूपधगुण होता है।
(४) विवृत्सति । वृत्+सन्। वृत्+वृत्+स । व+वृत्+स। वि+वृत्+स। विवृत्स+लट् । विवृत्स + शप् + तिप् । विवृत्स+अ+ति । विवृत्सति ।
यहां 'वृतु वर्तने' (भ्वा०आ०) धातु से 'धातोः कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३।१।७) से 'सन्' प्रत्यय, 'सन्यङो: ' ( ६ । १ । ९) से धातु को द्विर्वचन, 'उरत' (७/४/६६) से अभ्यास के 'ऋ' को अकार आदेश और 'सन्यतः ' ( ७।४।७९) से अभ्यास-अकार को इकार आदेश होता है। तत्पश्चात् सन्नन्त विवृत्स' धातु से 'लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में परस्मैपद 'तिप्' आदेश होता है।
(५) विवर्तिषते । वृत्+सन् । वृत्+वृत्+स। व+वृत्+इट्+स। वि+वर्त्+इ+ष । विवर्तिष+लट् । विवर्तिष+शप्+त । विवर्तिष+अ+ते । विवर्तिषते ।
यहां 'वृतु वर्तने' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् 'सन्' प्रत्यय और अभ्यास-कार्य, 'आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (७/२/३५ ) से 'इट्' आगम होता है । तत्पश्चात् सन्नन्त 'विवर्तिष' धातु से 'लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद 'त' आदेश होता है।
इसी प्रकार 'वृधु वृद्ध' (भ्वा०आ०) धातु से 'वत्स्यति' आदि रूप सिद्ध करें । विशेष- यहां 'वृद्भ्यः' पद का बहुवचन में निर्देश किया है, अतः इससे 'वृदादि' अर्थ ग्रहण किया जाता है । वृदादि धातु निम्नलिखित हैं- वृतु वर्तने । वृधु वृद्धौ । शृधु शब्दकुत्सायम्। स्यन्दू प्रस्रवणे । कृपू सामर्थ्ये । इति वृदादयो भ्वादिगणे पठयन्ते। कृपू सामर्थ्ये (क्लृप्) (भ्वा०आ० ) -
लुटि च क्लृपः । ६३ ।
प०वि० - लुटि ७ ।१ च अव्ययपदम् । क्लृपः ५ ।१ । अनु०- 'वा, स्यसनो:' इत्यनुवर्तते । अन्वयः - क्लृपो वा परस्मैपदं कर्तरि लुटि स्यसनोश्च ।
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