Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः
૧૪૬ उदा०-(भाववाच्य) ग्लायते भवता। सुप्यते भवता। आस्यते भवता। (कर्मवाच्य) क्रियते कटो देवदत्तेन । देवदत्त के द्वारा चटाई बनाई जाती है। हियते भारो देवदत्तेन। देवदत्त के द्वारा भार हरण किया जाता है। (कर्मकर्तवाच्य) लूयते केदारः स्वयमेव । खेत स्वयं ही कट रहा है।
सिद्धि-(१) क्रियते । कृ+लट् । कृ+त। कृ+यक्+त । क् रिय+त। क्रि+य+ते। क्रियते।
यहां डुकृञ् करणे (त००) धातु से कर्मवाच्य में लट् प्रत्यय, उसके स्थान में 'तिप्तझि०' (३१७७८) से आत्मनेपद का त' आदेश होता है। सार्वधातुके यक् (३।१।६७) से भाव और कर्मवाच्य में धातु से यक्' प्रत्यय और रिङ्शयलिस (७।४।२८) से धातु के 'ऋ' को रिङ्' आदेश होता है। इसी प्रकार हृा हरणे (भ्वा०उ०) धातु से हियते और लूज लवने (क्रया०उ०) धातु से लूयते शब्द सिद्ध होता है।
विशेष-(१) सकर्मक और अकर्मक भेद से धातु दो प्रकार की होती है। जिनका कोई कर्म मिलता है, उन्हें सकर्मक और जिनका कोई कर्म नहीं मिलता है, उन्हें अकर्मक धातु कहते हैं। ल: कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः' (३।४।६९) अर्थात् सकर्मक धातुओं से कर्मवाच्य और कर्तवाच्य अर्थ में लकार होते हैं। अकर्मक धातुओं से भाववाच्य और कर्तृवाच्य में लकार होते हैं। ग्लै हर्षक्षये' (भ्वा०प०) यह अकर्मक धातु है। इससे भाववाच्य में लकार होता है। ग्लायते भवता। आपके द्वारा ग्लानि की जाती है। इसी प्रकार से 'आस् उपवेशने (अ०आ०) आस्यते भवता । आपके द्वारा बैठा जाता है। निष्वप शये (अ०आ०) सुप्यते भवता । आपके द्वारा सोया जाता है।
कञ् करणे' (त०3०) धातु सकर्मक है। इसलिये इससे कर्मवाच्य अर्थ में लकार होता है-क्रियते कटो देवदत्तेन। देवदत्त के द्वारा चटाई बनाई जाती है। इसी प्रकार हृञ् हरणे' धातु से हियते भारो देवदत्तेन । देवदत्त के द्वारा भार ढोया जाता है।
क्रियापदं कर्तृपदेन युक्तं
व्यपेक्षते यत्र किमित्यपेक्षाम् । सकर्मकं तं सुधियो वदन्ति
शेषस्ततो धातुरकर्मक: स्यात् ।। अर्थ-जहां क्रियापद कर्तपद से युक्त होकर किम्' शब्द की अपेक्षा करता है उस धातु को विद्वान् लोग सकर्मक कहते हैं और जहां क्रियापद, कर्तृपद से युक्त होकर किम्' शब्द की अपेक्षा नहीं करता, उसे अकर्मक धातु कहते हैं।
लज्जासत्तास्थितिजागरणं
वृद्धिक्षयभयजीवनमरणम् । शयनक्रीडारुचिदीप्त्यर्थं
धातुगणं तमकर्मकमाहुः ।।
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