Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
ययि परसवर्ण:' (८/४/५८ ) से अनुस्वार को पूर्वविधि परसवर्ण ण करते समय परनिमित्तक अच् आदेश रूप अकार का लोप स्थानिवत् नहीं होता है। यदि वह स्थानिवत् हो जाये तो अनुस्वार को परसवर्ण नहीं हो सके। अकार लोप स्थानिवत् नहीं होता इसलिये अनुस्वार को परसवर्ण हो जाता है। इसी प्रकार 'पिष्लृ पेषणे' (रुधादि०) से पिण्डि ।
(७) अनुस्वारविधि | ( शिंषन्ति) शिष्+लट् । शिष्+झि । शिष्+अन्ति । शिश्नम् ष्+अन्ति । शि न् ष्+अन्ति । शि ष्+अन्ति । शिषन्ति । यहां शिष्लृ विशेषणे' (रुधादि०) से 'वर्तमाने लट्' (३ / २ / १२३ ) से लट् प्रत्यय 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लू के स्थान में 'झि' आदेश, 'झोऽन्तः' (७ 1१1३) से 'झ' को 'अन्त' आदेश, 'रुधादिभ्यः श्नम्' ( ३ 1१1७८ ) से विकरण 'श्नम् ' प्रत्यय, 'श्नसोरल्लोपः' (६ । ४ । १११) से परनिमित्तक 'श्नम्' के अकार का लोप, 'नश्चापदान्तस्य झलि (८/३/२४) से न को अनुस्वार करते समय परनिमित्तक अच् आदेश रूप अकार का लोप स्थानिवत् नहीं होता है । यदि वह स्थानितवत् हो जाये तो 'न्' को अनुस्वार नहीं हो सकता । अकार लोप कें स्थानिवत् न होने से 'न्' को अनुस्वार हो जाता है ।
(८) दीर्घविधि । (प्रतिदीना) प्रतिदिवन्+टा । प्रतिदीवन् + आ । प्रतिदीना। यहां ‘अल्लोपोऽन:’ (६।४।१३४ ) से अकार का लोप परनिमित्तक अच्- आदेश है । वह 'हलि च' (८।३।७७) से पूर्वविधि दीर्घ करने में स्थानिवत् नहीं होता है । यदि वह स्थानिवत् हो जाये तो हलू परे न रहने से दीर्घ नहीं हो सकता, अकार लोप के स्थानिवत् न होने से दीर्घ हो जाता है।
( ९ ) जश्विधि | ( सग्धिः ) अद्+क्तिन् । घस्लृ+ति। घस्+ति। घ्स्+ति । घ्+ति । घ्+धि । ग्+धि । ग्धि+सु । ग्धिः । समाना ग्धिरिति सग्धिः । यहां 'अद् भक्षणे ( अद०प०) से 'स्त्रियां क्तिन्' (३ । ३ । ९४ ) से क्तिन्' प्रत्यय, 'बहुलं छन्दसि' (२/४/३९) से अद् के स्थान में घस्लृ आदेश, 'घसिभसोर्हलि च' (६ । ४ ।१००) से 'घस्' की उपधा का लोप परनिमित्तक अच् आदेश है। वह 'झलां जश् झषि' (८।४ ।५३) से पूर्वविधि जश्त्व ग् करते समय स्थानिवत् नहीं होता है। यदि वह स्थानिवत् हो जाये तो 'घ्' को जश्त्व नहीं हो सकता। अकार लोप के स्थानिवत् न होने से जश्त्व हो जाता है।
(१०) चर्विधि | ( जक्षतुः) अद्+लिट् । अद्+तस् । अद्+अतुस् । घस्लृ+अतुस् । घस्+अतुस्। घ् स्+अतुस् । घस् घस् +अतुस् । घ+घस्+अतुस् । ज+घ्स्+अतुस् । ज+क्स्+अतुस्। ज+क्+ष्+अतुस् । जक्षतुः । यहां 'अद् भक्षणे' (अदा०प०) धातु से 'परोक्षे लिए' (३ । २ । ११५ ) से लिट् प्रत्यय, 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से 'तस्' प्रत्यय, ‘परस्मैपदानां णलतुस् ० ' ( ३।४।८२ ) से तस् के स्थान में 'अतुस्' आदेश, 'लिट्यन्यतरस्याम्' (३।१।४) से अद् के स्थान में 'घस्लृ' आदेश, 'गमहनजनखनघसां०' (६।४।९७) से घस् की उपधा अकार का लोप परनिमित्तक अच्- आदेश है । यदि वह
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