Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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• पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् चापत्यमात्रम्, अपितु उपगुविशिष्टमपत्यमानीयते । लोको हि प्रधानार्थवचनं च सम्यग् अवगच्छति, किं तत्र शास्त्रप्रयासेन ?
आर्यभाषा-अर्थ-(प्रधान-प्रत्ययार्थवचनम्) प्रधानार्थ और प्रत्ययार्थ का कथन भी (अशिष्यम्) उपदेश करने के योग्य नहीं है क्योंकि (अर्थस्य) अर्थ के सम्बन्ध में (अन्यप्रमाणत्वात्) शास्त्र से अन्य लोक को ही प्रमाण मानने से।
सिद्धि-पूर्वाचार्यों ने “प्रधानोपसर्जने प्रधानार्थं सह ब्रूत" अर्थात् प्रधान और उपसर्जन गौण दोनों पद मिलकर समास में प्रधान अर्थ का कथन करते हैं।, 'प्रकृतिप्रत्ययौ प्रत्ययार्थं सह ब्रूतः प्रकृति और प्रत्यय मिलकर प्रत्ययार्थ का कथन करते हैं, इस प्रकार के सूत्र बनाये थे। इस विषय में पाणिनिमुनि का मत यह है कि इस प्रकार के सूत्र-उपदेश की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि शब्दों के द्वारा अर्थ का कथन स्वाभाविक है, पारिभाषिक नहीं और वह लोक-प्रमाण से सिद्ध हो जाता है। जिन लोगों ने व्याकरण नहीं पढ़ा वे भी, जब यह कहा जाता है कि राजपुरुषमानय' अर्थात् राजपुरुष को बुलाओ तो वे राजविशिष्ट पुरुष को ले आते हैं, राजा को अथवा पुरुषमात्र को नहीं लाते। जो प्रयोजन लोक से सिद्ध है, उसमें शास्त्र उपदेश रूप प्रयत्न करने की क्या आवश्यकता है? कालोपसर्जनलक्षणमशिष्यम्
(५) कालोपसर्जने च तुल्यम्।५७। प०वि०-काल-उपसर्जने १।२ च अव्ययपदम्, तुल्यम् १।१ । स०-कालश्च उपसर्जनं च ते-कालोपसर्जने (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-'अशिष्यम्' इत्यनुवर्तते। . अन्वय:-कालोपसर्जने च तुल्यम् अशिष्यम्।
अर्थ:-काल उपसर्जनं च पूर्वेण तुल्यम् अशिष्यम्=न वक्तव्यम्, तत्रापि लोकप्रमाणत्वात्।
पुरा वैयाकरणै: 'आन्याय्यादुत्थानादान्याय्याच्च संवेशनाद् एषोऽद्यतन: कालः' इति काललक्षणं कृतम्, 'अप्रधानमुपसर्जनम्' इति चोपसर्जनलक्षणं कृतम् । तत् पाणिनि: प्रत्याचष्टे-इदं काललक्षणमुपसर्जनलक्षणं च लोकप्रमाणत एव सिद्धम्, किं तत्र शास्त्रप्रयत्नेन ?
__ आर्यभाषा-अर्थ-(काल-उपसर्जने) काल और उपसर्जन (च) भी (तुल्यम्) पूर्व के समान (अशिष्यम्) उपदेश करने योग्य नहीं हैं क्योंकि उनमें भी (अन्यप्रमाणत्वात्) शास्त्र से अन्य लोक को ही प्रमाण मानने से।
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