Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः अर्थ:-अचां मध्ये योऽन्त्योऽच्, तदादि शब्दरूपं टिसंज्ञकं भवति। उदा०-अग्निचित् । सोमसुत्। पचेते। पचेथे।
आर्यभाषा-अर्थ-(अचाम्) अचों के मध्य में (अन्त्यादि) जो अन्त्य अच् है और वह अन्त्य अच् जिस हल-समुदाय के आदि में है, उस शब्द की (टि) टि संज्ञा होती है।
उदा०-अग्निचित् । अग्नि का चयन करनेवाला। सोमसुत । सोम का सवन करनेवाला। पचेते। वे दोनों पकाते हैं। पचेथे। तुम दोनों पकाते हो।
सिद्धि-(१) अग्निचित् । यहां अन्तिम अच् 'इ' है और वह त् हल के आदि में है, इसलिये यहां इत्' शब्द की टि' संज्ञा है। इसी प्रकार (२) सोमसुत्' में उत्' शब्द की टि' संज्ञा होती है।
(३) पचेते। पच्+लट् । पच्+शप्+आताम् । पच+अ+आताम् । पच्+अ+इयताम्। पच्+अ+इ० ते। पचेते। यहां 'आताम्' प्रत्यय में 'आम्' भाग की टि' संज्ञा होती है और उसे टित आत्मनेपदानां टेरे' (३।४।७९) से 'ए' आदेश हो जाता है। इसी प्रकार पचेथे' में 'आथाम्' प्रत्यय के 'आम्' भाग की टि संज्ञा है और उसे पूर्ववत् 'ए' आदेश होता है।
विशेष-यहां अग्निचित् आदि उदाहरण टि संज्ञा को समझाने के लिए दिये गये हैं। उनमें टि संज्ञा का कोई कार्य नहीं है। उपधा-संज्ञा
अलोऽन्त्यात् पूर्व उपधा।६४। प०वि०-अल: ५।१ अन्त्यात् ५।१ पूर्व: १।१ उपधा ११ अन्ते भवम् अन्त्यम् तस्मात् अन्त्यात् (तद्धितवृत्ति:)। अन्वय:-अन्त्याद् अल: पूर्व उपधा।
अर्थ:-धात्वादिवर्णसमुदायेऽन्त्याद् अल: पूर्वो यो वर्ण: स उपधा संज्ञको भवति भवति।
उदा०-(भिद्) भेत्ता। (छिद्) छेत्ता।
आर्यभाषा-अर्थ-धातु आदि वर्णसमुदाय में (अन्त्यात्) अन्तिम (अल:) अल् से (पूर्व:) पहला जो वर्ण है, उसकी (उपधा) उपधा संज्ञा होती है। जैसे पच् और पठ् यहां अकार की उपधा संज्ञा है। भिद् और छिद् यहां इकार की उपधा संज्ञा है। बुध और युथ यहां उकार की उपधा संज्ञा है। वृत् और वृध् यहां ऋकार की उपधा संज्ञा है। व्याकरणशास्त्र में उपधा के अनेक कार्य किये जाते हैं। जो यथास्थान उपलब्ध हो जायेंगे।
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