Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
View full book text
________________
७६
प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः सिद्धि-(१) उद्विजिता । विज्+तृच् । विज्+इट्+तृ। विज्+इ+तृ। विजितृ+सु। विजित् अनड्+स् । विजितन्+स् । विजितान्+स् । विजितान्+0 । विजिता। उत्+विजिता। उद्विजिता।
यहां उत् उपसर्गपूर्वक 'ओविजी भय-सञ्चलनयो:' (तु०आ०) धातु से 'वुल्तृचौं (३।१।१३३) से तृच्' प्रत्यय और उसको 'आर्धधातुकस्येड्वलादे: (७।२।३५) से 'इट' का आगम करने पर पुगन्तलघूपधस्य च' (७/३ १८६) अग को लघूपध गुण प्राप्त होता है। इस सूत्र से इडादि तृच्' प्रत्यय के 'डित्' हो जाने से डिति च' (१।१।५) से गुण का निषेध हो जाता है। डिविकल्प:
(३) विभाषोर्णोः ।३। प०वि०-विभाषा ११ ऊो: ५।१ । अनु०-'डित्, इट्' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-ऊोरिड् विभाषा डित्। अर्थ:-ऊर्णो धातो: पर इडादिप्रत्ययो विकल्पेन डिद्वद् भवति। उदा०-(ऊर्गु) प्रोणुविता। प्रोर्णविता।
आर्यभाषा-अर्थ-(ऊर्णो:) ऊर्गु धातु से परे (इट्) इडादिप्रत्यय (विभाषा) विकल्प से (डित्) डिद्वत् होता है।
उदा०-(ऊर्ण) प्रोणविता। प्रोणविता। ढकनेवाला।
सिद्धि-(१) प्रोणुविता । ऊर्गु+तृच् । ऊर्गु+इट्+तु। ऊर्गुइ+त् । ऊ उखड्+इ+तृ। ऊर्ण उव्+इ+तु। ऊर्णवितृ+सु। ऊर्णविता। प्र+ऊर्णविता। प्रोर्णविता।
यहां ऊर्गुञ् आच्छादने (अदा०उ०) धातु से 'वुल्तृचौ' (३।१।१३३) से तृच्’ प्रत्यय, 'आर्धधातुकस्येड्वलादे:' (७।२।३५) से उसे 'इट' का आगम होने पर सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से अङ्ग को गुण प्राप्त होता है, किन्तु इस सूत्र से इडादि तृच्' प्रत्यय के डित्' हो जाने से 'क्डिति च' (१।१५) से गुण का निषेध हो जाता है। तत्पश्चात् यथाप्राप्त 'अचि शुनुधातुभ्रुवां यवोरियडुवङौं' (६४।७७) से अङ्ग को 'उवङ्' आदेश होता है।
(२) प्रोर्णविता। ऊर्गु+तृच । ऊर्गु+इट्+तृ। अणु+इ+तृ। ऊर्णो+इ+तृ। ऊर्ण अव्+इ+तृ। ऊवितृ+सु। ऊर्णविता। प्र+ऊर्णविता। प्रोविता।
यहां पूर्ववत् तृच' प्रत्यय और उसको 'इट' का आगम करने पर विभाषा वचन से इडादि तृच्' प्रत्यय के ङित्' न होने से 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से अग को गुण हो जाता है और एचोऽमवायाव:' (६११७८) से 'अव्' आदेश होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org