Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) अतिरि। अति+रै। अति+रि। अतिरि+सु। अतिरि। रायमतिक्रान्तमिति अतिरि ब्राह्मणकुलम्। यहां 'अत्यादय: क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया' (वा० २।२।१८) से प्रादिसमास, 'हस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य (१।२।४७) से नपुंसकलिंग में रै' के ऐकार को इकार ह्रस्वादेश होता है।
(३) अतिनु । अति+नौ। अतिनु+सु । अतिनु । नावमतिक्रान्तमिति अतिनु कुलम् । यहां भी पूर्ववत् समास तथा औ' को उकार ह्रस्वादेश होता है। आदेशे षष्ठी-अर्थ:
(२) षष्ठी स्थानेयोगा।४६ । प०वि०-षष्ठी ११ स्थानेयोगा ११ ।
स०-स्थाने योगो यस्या: सा स्थानेयोगा (बहुव्रीहि:) अत्र निपातनात् सप्तम्या अलुक्।
अर्थ:-आदेशे कर्तव्येऽनियतसम्बन्धा षष्ठी स्थानेयोगा भवति ।
उदा०-अस्तेk:-भविता । भवितुम् । भवितव्यम् । ब्रुवो वचि:-वक्ता। वक्तुम् । वक्तव्यम्।
आर्यभाषा-अर्थ-इस शब्दशास्त्र में जो षष्ठी विभक्ति अनियत योगवाली सुनाई देती है, वह (स्थानेयोगा) स्थाने' शब्द के योगवाली होती है, अन्य योगवाली नहीं। अस्तेर्भूः (२।४।५२) भविता। होनेवाला। भवितुम्। होने के लिये। भवितव्यम्। होना चाहिये। ब्रुवो वचि (२।४।५३) वक्ता। बोलनेवाला। वक्तुम्। बोलने के लिये। वक्तव्यम्। बोलना चाहिये।
सिद्धि-(१) अस्तेर्भूः । सूत्र के 'अस्तेः' पद में षष्ठी विभक्ति है। उसका अर्थ यह किया जाता है कि 'अस्ति' के स्थान में 'भू' आदेश होता है, आर्धधातुकविषय में। जैसे कि 'भविता' आदि उदाहरणों में स्पष्ट है।
(२) ब्रवो वचिः' (२।४।५३) सूत्र के 'ब्रुव:' पद में षष्ठी विभक्ति है। उसका अर्थ यह किया जाता है कि 'ब्र' के स्थान में वच् आदेश होता है, आर्धधातुक विषय में। जैसा कि 'वक्ता' आदि उदाहरणों में स्पष्ट है।
विशेष-(१) यहां स्थान शब्द प्रसंगवाची है। जैसे 'दर्भाणां स्थाने शरैः प्रस्तरितव्यम्' अर्थात् दर्भ के स्थान में शर बिछने चाहियें। यहां यही समझा जाता है कि दर्भ के प्रसंग में शरों का प्रस्तार करना चाहिये, वैसे 'अस्तेर्भूः' (२।४।५२) कहने पर यही समझना चाहिये कि 'अस्' धातु के प्रसंग में 'भू' आदेश होता है।
(२) षष्ठी विभक्ति के स्व, स्वामी, अनन्तर, समीप, समूह, विकार और अवयव आदि अनेक अर्थ हैं। जितने भी षष्ठी विभक्ति के अर्थ सम्भव हैं, उन सब की प्राप्ति में
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