Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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( १८ ) इन सब प्रश्नों में भी मुख्य है बंध के कारणों का परिज्ञान होना । क्योंकि जब तक बंध के कारणों की स्पष्ट रूपरेखा ज्ञात नहीं हो जाती है तब तक सहज रूप में अन्य प्रश्नों का उत्तर प्राप्त नहीं किया जा सकता है । अतएव उन्हीं की यहाँ कुछ चर्चा करते हैं।
ऊपर जीव की जिन दो अवस्थाओं का उल्लेख किया है, उनमें बद्ध प्रथम है और मुक्त तदुत्तरवर्ती-द्वितीय। क्योंकि जो बद्ध होगा, वही मुक्त होता है। बद्ध का अपर नाम संसारी है। इसी दृष्टि से जैनदर्शन में जीवों के संसारी और मुक्त ये दो भेद किये हैं । जो चतुर्गति और ८४ लाख योनियों में परिभ्रमण करता है, उसे संसारी और ससार से मुक्त हो गया, जन्म-मरण की परम्परा एवं उस परम्परा के कारणों से नि:शेषरूपेण छूट गया, उसे मुक्त कहते हैं। ये दोनों भेद अवस्थाकृत होते हैं। पहले जीव संसारी होता है और जब वह प्रयत्नपूर्वक संसार का अन्त कर देता है, तब वही मुक्त हो जाता है। ऐसा कभी सम्भव नहीं है और न होता है कि जो पूर्व में मुक्त है वही बद्ध-संसारी हो जाये। मुक्त होने के बाद जीव पुन: संसार में नहीं आता है । क्योंकि उस समय संसार के कारणों का अभाव होने से उसमें ऐसी योग्यता ही नहीं रहती है, जिससे वह पुनः संसार के कारण-कर्मों का बंध कर सके।
कर्मबंध की योग्यता जीव में तब तक रहती है. अब तक उसमें मिथ्यात्व (अतत्त्व श्रद्धा या तत्त्वरुचि का अभाव), अविरति (त्याग रूप परिणति का अभाव), प्रमाद (आलस्य, अनवधानता), कषाय (क्रोधादि भाव) और योग (मन, वचन और काय का व्यापार–परिस्पन्दन-प्रवृत्ति) हैं। इसीलिए इनको कर्मबंध के हेतु कहा है। जब तक इनका सद्भाव पाया जाता है, तभी तक कर्मबंध होता है । इन हेतुओं के लिए यह जानना चाहिए कि पूर्व का हेतु होने पर उसके उत्तरवर्ती सभी हेतु रहेंगे एवं तदनुरूप कर्मबंध में सघनता होगी, लेकिन उत्तर के हेतु होने पर पूर्ववर्ती हेतु का अस्तित्व कादचित्क है और इन सबका अभाव हो जाने पर जीव मुक्त हो जाता है। ये मिथ्यात्व आदि जीव
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