Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 201
________________ पंचसंग्रह : ४ इस प्रकार से देशविरतगुणस्थान के बंधप्रत्ययों और उनके भंगों का विवरण जानना चाहिये । अब प्रमत्तसंयतगुणस्थान के बंधप्रत्ययों का विवार करते हैं। ६. प्रमत्तसंयतगुणस्थान-इस गुणस्थान में पांच, छह और सात ये तीन बंधप्रत्यय होते हैं। इस गुणस्थान की यह विशेषता है कि अप्रशस्त वेद के उदय में आहारकऋद्धि उत्पन्न नहीं होने से आहारककाययोगद्विक की अपेक्षा केवल एक पुरुषवेद होता है, इतर दोनों वेद (स्त्रीवेद, नपुसकवेद) नहीं होते हैं । इस सूत्र के अनुसार यहाँ बंधप्रत्यय जानना चाहिये । प्रमत्तसंयतगुणस्थान में कोई एक संज्वलन कषाय, तीन वेदों में से कोई एक वेद, हास्यादि एक युगल और (मनोयोगचतुष्क, वचनयोगचतुष्क, औदारिककाययोग इन नौ योगों में से) एक योग, ये पांच बंधप्रत्यय होते हैं। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है १+१+२+१==५। इनके भंग ४४३४ २x६=२१६ होते हैं। किन्तु आहारकद्विक की अपेक्षा इनके भंग ४-१x२x२=१६ होते हैं। इन दोनों को मिलाने पर कुल भंग (२१६+ १६=२३२) दो सौ बत्तीस जानना चाहिए । अब छह बंधप्रत्ययों के भंगों को बतलाते हैं कोई एक संज्वलन कषाय, तीन वेदों में से कोई एक वेद, हास्यादि एकय गल, भयद्विक में से कोई एक और योग एक, ये छह बंधप्रत्यय होते हैं। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है १+१+२+१+१=६ । इनके भंग ४४ ३४२x२x६=४३२ होते हैं तथा आहारकद्विक की। अपेक्षा इनके भंग ४४१X२x२x२=३२ होते हैं। इन दोनों का कुल जोड़ (४३२+३२=४६४) चार सौ चौंसठ है । अब सात बंधप्रत्यय और उनके भंगों को बतलाते हैंJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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