Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधहेतु - प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट
गुणस्थानों में मूल बंधहेतु इस प्रकार हैं
प्रथम मिथ्यात्वगुणस्थान में मिथ्यात्वादि योग पर्यन्त चारों प्रत्ययों से कर्मबंध होता है । तदनन्तर दूसरे, तीसरे और चौथे- सासादन, मिश्रहिष्ट और अविरतसम्यग्दृष्टि इन तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्व को छोड़कर शेष तीन कारणों से कर्मबंध होता है । देशविरत नामक पांचवें गुणस्थान में दूसरा अविरत प्रत्यय मिश्र अर्थात् आधा और उपरिम दो प्रत्यय ( कषाय और योग ) कर्मबंध के कारण हैं । तदनन्तर छठे प्रमतविरतगुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान पर्यन्त पांच गुणस्थानों में कषाय और योग इन दो कारणों से तथा ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें - उपशांतमोह, क्षीणमोह और सयोगिकेवली इन तीन गुणस्थानों में केवल योगप्रत्यय से कर्मबंध होता है ।
गुणस्थानों में नाना जीवों की अपेक्षा नाना समयों में उत्तरप्रत्ययों का विवरण इस प्रकार है—
१. मिथ्यात्वगुणस्थान में आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग इन दो प्रत्ययों के न होने से शेष पचपन उत्तरप्रत्ययों से कर्मबंध होता है ।
२. सासादनगुणस्थान में पूर्वोक्त आहारकद्विक योग और पांचों मिथ्यात्व इन सात प्रत्ययों के न होने से पचास उत्तरप्रत्ययों से कर्मबंध होता है ।
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३. मिश्रणस्थान में अपर्याप्तकाल सम्बन्धी औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मण ये तीन काययोग, अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क एवं उपर्युक्त सात इस प्रकार चौदह प्रत्यय न होने से तेतालीस उत्तरप्रत्यय होते हैं ।
४. अविरत सम्बन्हष्टिगुणस्थान में मिश्रगुणस्थानवर्ती चौदह प्रत्ययों में से अपर्याप्त काल सम्बन्धी तीन प्रत्ययों के होने और शेष ग्यारह प्रत्ययों के न होने से कुल छियालीस उत्तरप्रत्यय होते हैं ।
५. देशविरत गुणस्थान में
सवध, द्वितीय अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क, अपर्याप्त काल सम्बन्धी तीनों काययोग, वैक्रियकाययोग तथा मिथ्यात्वपंचक, अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क और आहारकद्विक इस प्रकार बीस प्रत्यय नहीं होने से सैंतीस उत्तरप्रत्यय होते हैं ।
६. प्रमत्तविरत गुणस्थान में चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और आहारकद्विक ये ग्यारह योग तथा संज्वलनकषायचतुष्क,
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