Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ४
७-८. अप्रमत्तविरत और अपूर्वकरण, इन दो गुणस्थानों में उपर्युक्त चौबीस प्रत्ययों में से आहारकद्विक के बिना शेष बाईस उत्तरप्रत्यय होते हैं।
६. अनिवृत्तिकरणगुणस्थान के सात भागों में बंधप्रत्ययों के होने का क्रम इस प्रकार है
(क) प्रथम भाग में अपूर्वकरण के बाईस प्रत्ययों में से हास्यादि षट्क के बिना सोलह प्रत्यय होते हैं। (ख) द्वितीय भाग में नपुसकवेद के बिना पन्द्रह, (ग) तृतीय भाग में स्त्रीवेद के बिना चौदह, (घ) चतुर्थ भाग में पुरुषवेद के बिना तेरह, (ङ) पंचम भाग में संज्वलनक्रोध के बिना बारह, (च) षष्ठ भाग में संज्वलनमान के बिना ग्यारह, (छ) सप्तम भाग में संज्वलनमाया के बिना बादर लोभ सहित दस प्रत्यय होते हैं।
१०. सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और सूक्ष्म संज्वलनलोभ ये दस उत्तरप्रत्यय होते हैं।
११,१२. उपशान्तमोह और क्षीणमोह इन दो गुणस्थानों में दसवें गुणस्थान के दस उत्तरप्रत्ययों में से संज्वलनलोभ के बिना नौ-नौ उत्तरप्रत्यय होते हैं।
१३. सयोगिकेवलीगुणस्थान में प्रथम और अन्तिम दो-दो मनोयोग और वचनयोग तथा औदारिकद्विक और कार्मण काययोग ये सात उत्तरप्रत्यय होते हैं।
१४. अयोगिकेवलीगुणस्थान में कर्मबंध का कारणभूत कोई भी मूल या उत्तर प्रत्यय नहीं होता है ।
उपक्त कथन का सारांशदर्शक प्रारूप इस प्रकार है
गुणस्थान मि. सा. मि. अ. दे प्र.
अनि.
सू
उ. क्षी.स.अ.
मूलप्रत्यय
३
.
0
उत्तरप्रत्यय ५५'५०४३/४६/३७/२४/२२२२/१६,१५,१४,१३,१०/88/७/०
। १२,११,१०
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