Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधहेतु - प्ररूपणा अधिकार, गाथा २
शब्दार्थ - अभिग्ग हियं - अभिग्रहिक, अणाभिग्गर्ह - अनाभिग्रहिक, चऔर, अभिनिवेसियं -- आभिनिवेशिक, चेव — तथा, संसइयमणाभोगं-सांशयिक, अनाभोग, मिच्छत्तं - मिथ्यात्व, पंचहा - पांच प्रकार का, होइ - है |
गाथार्थ --- अभिग्रहिक और अनाभिग्रहिक तथा अभिनिवेशिक, सांशयिक, अनाभोग, इस तरह मिथ्यात्व के पांच भेद हैं । विशेषार्थ - गाथा में मिथ्यात्व के पांच भेदों के नाम बतलाये हैं । अर्थात् तत्त्वभूत जीवादि पदार्थों की अश्रद्धा, आत्मा के स्वरूप के अयथार्थ ज्ञान - श्रद्धानरूप मिथ्यात्व के पांच भेद यह हैं
अभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, आभिनिवेशिक सांशयिक और अनाभोग ।' जिनकी व्याख्या इस प्रकार है
"
१ आचार्यों ने विभिन्न प्रकार से मिथ्यात्व के भेद और उनके नाम बताये हैं। जैसे कि संशय, अभिगृहीत और अनभिगृहीत के भेद से मिथ्यात्व के तीन भेद हैं । अथवा एकान्त, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान के भेद से मिथ्यात्व के पांच भेद हैं । अथवा नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक के भेद से मिथ्यात्व के दो भेद हैं और परोपदेश निमित्तक मिथ्यात्व चार प्रकार का है - क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनयिक तथा इन चारों भेदों के भी प्रभेद तीन सौ तिरेसठ (३६३ ) हैं । अन्य भी संख्यात विकल्प होते हैं । परिणामों की दृष्टि से असंख्यात और अनुभाग की दृष्टि से अनन्त भी भेद होते हैं तथा नैसर्गिक मिथ्यात्व एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी - पंचेद्रिय, तिर्यंच, म्लेच्छ, शवर, पुलिंद आदि स्वामियों के भेद से अनेक प्रकार का है ।
इस प्रकार मिथ्यात्व के विभिन्न प्रकार से भेदों की संख्या बताने का कारण यह है
जावदिया वयणपहा, तावदिया चेव होंति णयवादा। जाबदिया णयवादा तावदिया चेव परसमया ॥ अर्थात् — जितने वचनमार्ग हैं, उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं, उतने ही परसमय होते हैं ।
अतएव मिथ्यात्व के तीन या पांच आदि भेद होते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है । किन्तु ये भेद तो उपलक्षणमात्र समझना चाहिये ।
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