Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह उक्त प्रकार से गुणस्थानों में मूल बंधहेतुओं को बतलाने के पश्चात् अब गुणस्थानों में मूल बंधहेतुओं के अवान्तर भेदों को बतलाते हैंगुणस्थानों में मूल बंध हेतुओं के अवान्तर भेद
पणपन्न पन्न तियछहियचत्त गुणचत्त छक्कचउसहिया । दुजुया य वीस सोलस बस नव नव सत्त हेऊ य ॥५॥
शब्दार्थ-पणपन्न--पचपन, पन्न-पचास, तियछहियचत्त-तीन और छह अधिक चालीस अर्थात् तेतालीस, छियालीस, गुणवत्त-उनतालीस छक्कच उसहिया -छह और चार सहित, दुजुया-दो सहित, य-और, वीसवीस, सोलस--सोलह, दस-दस, नव-नौ, नव-नौ, सत्त-सात, हेऊ-हेतु, य-और ।
गाथार्थ-पचपन, पचास, तीन और छह अधिक चालीस, उनतालीस, छह, चार और दो सहित बोस, सोलह, दस, नौ, नौ और सात, इस प्रकार मूल बंधहेतुओं के अवान्तर भेद अनुक्रम से तेरह गुणस्थानों में होते हैं।
विशेषार्थ-चौदहवें अयोगिकेवलीगुणस्थान में बंधहेतुओं का अभाव होने से नाना जीवों और नाना समयों की अपेक्षा गाथा में पहले मिथ्यात्व से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानों में अनुक्रम से मूल बन्धहेतुओं के अवान्तर भेद बतलाये हैं। जिनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
मिथ्यात्व आदि चारों मूल बंधहेतुओं के क्रमशः पांच, बारह, पच्चीस और पन्द्रह उत्तरभेदों का जोड़ सत्तावन होता है। उनमें से पहले मिथ्यात्वगुणस्थान में आहारक और आहारकमिश्र काययोग, इन दो काययोगों के सिवाय शेष पचपन बंधहेतु होते हैं। यहाँ आहारकद्विक काययोग का अभाव होने का कारण यह है कि आहारकद्विक
आहारकलब्धिसम्पन्न चतुर्दश पूर्वधर मुनियों के ही होते हैं तथा इन दोनों का बन्ध सम्यक्त्व और संयम सापेक्ष है। किन्तु पहले गुणस्थान में न तो सम्यक्त्व है और न संयम है। जिससे पहले गुणस्थान में ये दोनों नहीं पाये जाते हैं। इसलिए इन दोनों योगों के सिवाय शेष पचपन बंधहेतुमिथ्यात्व गुणस्थान में हैं Lersonal use Only
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