Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६
८३ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त को छोड़कर शेष बारह जीवस्थानों में जघन्यतः सोलह और उत्कृष्टत: अठारह बंधहेतु होते हैं। लेकिन यह कथन मिथ्यादृष्टिगुणस्थान की अपेक्षा से ही समझना चाहिये। क्योंकि सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में तो बादर अपर्याप्त एकेन्द्रियों के जघन्यपद में पन्द्रह बंधहेतु होते हैं। ____संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकों के जघन्यपद में चौदह और उत्कृष्टपद में अठारह बंधहेतु होते हैं। इस प्रकार से तेरह जीवस्थानों में तो यथोक्त क्रम से बंधहेतुओं को समझ लेना चाहिये और इनसे शेष रहे एक जीवस्थान संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में तो जैसे पहले गुणस्थानों में बंधहेतुओं का प्रतिपादन किया है तदनुसार समझना चाहिये । क्योंकि पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में ही चौदह गुणस्थान संभव हैं। जिससे चौदह गुणस्थानों के बंधहेतुओं के भंगों के कथन द्वारा पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में ही बंधहेतुओं का निर्देश किया गया है, ऐसा समझ लेना चाहिये। अतः यहाँ पुनः उनके भंगों का कथन नहीं करके शेष तेरह जीवस्थानों के भंगों को बतलाते हैं।
अब पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के सिवाय शेष तेरह जीवस्थानों में मिथ्यात्व आदि बंधहेतुओं के संभव अवान्तर भेदों का निर्देश करते हैं। पर्याप्त संज्ञो व्यतिरिक्त शेष जीवस्थानों में संभव बंधहेतु
मिच्छत्तं एगं चिय छक्कायवहो ति जोग सन्निम्मि ।
इंदियसंखा सुगमा असन्निविगलेसु दो जोगा ॥१६॥ शब्दार्थ-मिच्छत्तं-मिथ्यात्व, एग-एक, चिय-ही, छक्कायवहोछहों काय का वध, ति–तीन, जोग-योग, सन्निम्मि-(अपर्याप्त) संज्ञो में, इंदियसंखा-इन्द्रियों की संख्या, सुगमा-सुगम, असन्निविगलेसुअसंज्ञी और विकलेन्द्रियों में, दो-दो, जोगा-योग ।
गाथार्थ-(पर्याप्त संज्ञी के सिवाय तेरह जीवभेदों में) मिथ्यात्व
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