Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 149
________________ ११४ पंचसंग्रह : ४ अब परीषहों का कर्मोदयजन्यत्व सिद्ध करते हैं कि बद्धकर्मों का यथायोग्य रीति से उदय होने पर साधुओं को अनेक प्रकार के परीषह उपस्थित होते हैं । अतएव उन परीषहों में जिस-जिस कर्म का उदय निमित्त है, उसको तीन गाथाओं द्वारा बतलाते हैं। सयोगिकेवलीगुणस्थान में प्राप्त परीषह खुप्पिवासुण्हसीयाणि सेज्जा रोगो वहो मलो। तणफासो चरीया य दंसेक्कारस जोगिस ॥२१॥ शब्दार्थ- खुप्पिवासुण्हसीयाणि-क्षुधा, पिपासा, उष्ण और शीत, सेज्जाशैया, रोगो-रोग, वहो-६ध, मलो-मल, तणफासो-तृणस्पर्श, चरीया-- चर्या, य-और, दस-दंश, एक्कारस-ग्यारह, जोगिस-योगी (सयोगिके वली) गुणस्थान में। गाथार्थ- क्षुधा (भूख), पिपासा (प्यास), उष्ण (गरमी), शीत (सरदी), शैया, रोग, वध, मल, तृणस्पर्श, चर्या और दंश ये ग्यारह परीषह सयोगिकेवलीगुणस्थान में होते हैं। विशेषार्थ- क्षुधा, पिपासा आदि बाईस परीषहों में से सयोगिकेवलीगुणस्थान में संभव परीषहों को गाथा में बतलाया है। कारण सहित जिनका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है । यद्यपि गाथा में परीषह शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है, तथापि उनका प्रकरण होने से गाथागत पदों के साथ यथायोग्य रीति से जोड़कर इस प्रकार आशय समझना चाहिये १. क्षुत्पिपासाशीतोष्णदशमशकनान्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृगस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि । क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, देशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शैया, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ये बाईस परीषह होते हैं। -तत्त्वार्थसूत्र ६/६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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