Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ४
वाले हैं, ऐसे मुनिराजों का कठोर कंकर और कांटों आदि के द्वारा पैरों में अत्यन्त पीड़ा होने पर भी पूर्व में सेवित वाहनादि में जाने का स्मरण नहीं करते हुए ग्रामानुग्राम विहार करना चर्यापरीषहजय कहलाता है ।
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डांस, मच्छर, मक्खी, खटमल कीड़ा, मकोड़ा, बिच्छू आदि जन्तुओं द्वारा पीड़ित होने पर भी उस स्थान से अन्यत्र नहीं जाकर और उन डांस, मच्छर आदि जन्तुओं को किसी भी प्रकार से पीड़ा नहीं पहुंचाते हुए एवं बीजना आदि के द्वारा उनको दूर भी नहीं करते हुए उन डांस, मच्छर आदि से होने वाली बाधा को समभाव से सहन करना दशपरीषहविजय है ।
ये ग्यारह परीषह सयोगिकेवली भगवान को भी सम्भव हैं । अब दो गाथाओं द्वारा परीषहों की उत्पत्ति में किस कर्म का उदय हेतु है ? और कौन उनके स्वामी हैं ? यह बतलाते हैं ! परीषहोत्पत्ति में कर्मोदयहेतुत्व व स्वामी
वेयणीयभवा एए पन्नानाणा उ आइमे । अट्टमंमि अलाभोत्थो छउमत्थेसु चोट्स ॥२२॥ निसेज्जा जायणाकोसो अरई इत्थिनग्गया । सक्कारो दंसणं मोहा बावीसा चेव रागिसु ॥२३॥
शब्दार्थ - वेयणीयभवा - वेदनीय कर्म से उत्पन्न, एए - ये, पन्नानाणाप्रज्ञा और अज्ञान, उ — और, आइमे -- आदि के ( ज्ञानावरणकर्म के ), अट्ठमंमि - आठवें के ( अन्तराय के ), अलामोत्थो – अलाभ से उत्पन्न, छउमत्थेसु -- छद्मस्थों में, चोस - चौदह ।
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निसेज्जा - निषद्या, जायणा-याचना,
अरई - अरति, इत्थि - स्त्री, नग्गया - नग्नता, सक्कारो - सत्कार, दंसणं-- दर्शन, मोहामोह के, बाबीसा - बाईस, च- और, एव – ही, रागिसु - सरागियों में ।
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गाथार्थ - (पूर्वोक्त ग्यारह परीषह) वेदनीयकर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं और प्रज्ञा एवं अज्ञान परीषह ज्ञानावरणकर्म का
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