Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 158
________________ १२३ बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २२-२३ प्रश्न-आपने अचेलकत्व का जो रूप बतलाया है, उस प्रकार से तो अचेलकपना औपचारिक सिद्ध हुआ। अतएव उस प्रकार के अचेलकत्व रूप परीषह का सहन करना भी औपचारिक माना जायेगा और यदि ऐसा हो तो मोक्षप्राप्ति किस प्रकार होगी ? क्योंकि उपचरितआरोपित वस्तु वास्तविक अर्थक्रिया नहीं कर सकती है। जैसे कि माणवक में अग्नि का आरोप करने से पाकक्रिया नहीं होती है। उत्तर-यदि ऐसा हो तो निर्दोष आहार का सेवन करने वालेखाने वाले मुनि के सम्यक् प्रकार से क्षुधापरीषह का सहन करना धटित नहीं हो सकता है। क्यों तुम्हारे कथनानुसार तो आहार के सर्वथा त्याग से क्षुधापरीषह का सहन करना घट सकता है और यदि ऐसा माने जाये तो अरिहन्त भगवान भी क्षुधापरीषहजयो नहीं कहलाये । क्योंकि भगवान भी छमावस्था में तुम्हारे मतानुसार निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं और इस प्रकार से निर्दोष आहार लेने वाले क्षुधापरीषह के विजेता तुम्हें इष्ट नहीं हैं, किन्तु ऐसा है नहीं अर्थात् इष्ट हैं । इस लिये जैसे अनेषणीय और अकल्पनीय भोजन के त्याग से क्षधापरीषह का सहन करना इष्ट है, उसी प्रकार महामूल्य वाले, अनेषणीय और अकल्पनीय वस्त्र के त्याग से अवेलक परोषह का सहन करना मानना चाहिये। उक्त दृष्टिकोण को आधार बनाकर ऐसा भी नहीं कहना चाहिये कि यदि ऐसा है तो सुन्दर स्त्री का त्याग करके कानी-कुबड़ी और कुरूप अंगवाली स्त्री का उपभोग करते हुए भी स्त्रीपरीषह सहन करने का प्रसंग उपस्थित होगा। क्योंकि सूत्र में स्त्री के उपभोग का सर्वथा निषेध किया है। किन्तु इसी प्रकार किसी भी सूत्र में जीर्ण और अल्प मूल्य वाले वस्त्रों का प्रतिषेध नहीं किया है। जिससे अति. प्रसंग दोष प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार अचेलकत्व के विषय में जानना चाहिये । गाथा में 'सत्कार' शब्द ग्रहण किया है, लेकिन पद के एक देश को ग्रहण करने से समस्त पदों को ग्रहण करने के न्याय से यहाँ सत्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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