Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ४ समझता है आदि, इस प्रकार के तिरस्कार भरे हुए वचनों को सम्यक् प्रकार से सहन करते हुए, परम दुष्कर तपस्यादि क्रिया में रत-सावधान और नित्य अप्रमत्तचित्त होते हुए भी मुझे अभी तक ज्ञानातिशय उत्पन्न नहीं होता है, इस प्रकार का विचार करना किन्तु किंचिन्मात्र भी विकलता उत्पन्न नहीं होने देना अज्ञानपरीषहजय कहलाता है।
'अट्टमंमि अलाभोत्थो' अर्थात् अन्तरायकर्म का उदय-विपाकोदय होने पर अलाभपरीषह सहन करने का अवसर प्राप्त होता है । वह इस प्रकार समझना चाहिये
भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में विहार करते हुए सम्पत्ति की अपेक्षा बहुत से उच्च-नीच-मध्यम घरों में भिक्षा को प्राप्त नहीं करके भी असंक्लिष्ट मन वाले और दातार की परीक्षा करने में निरुत्सुक होते हुए ‘अलाभ मुझे उत्कृष्ट तप है' ऐसा विचार करके अप्राप्ति को अधिक गुण वाली मानकर अलाभजन्य परीषह को समभावपूर्वक सहन करना अलाभपरीषहजय कहलाता है।
इस प्रकार पूर्व गाथा में कहे गए ग्यारह और यहाँ बताये प्रज्ञा, अज्ञान एवं अलाभ ये तीन, कुल मिलाकर चौदह परीषह छद्मस्थवीतराग उपशांतमोह और क्षीणमोह गुणस्थान में होते हैं तथा संज्वलनलोभ की सूक्ष्म किट्टियों का अनुभव करने के कारण वीतरागछद्मस्थ सदृश जैसा होने से सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में भी ये चौदह परीषह होते हैं। क्योंकि सम्पूर्ण मोहनीय के क्षीण होने और अत्यन्त सूक्ष्म लोभ का उदय स्वकार्य करने में असमर्थ होने से सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में मोहनीयकर्मजन्य कोई भी परीषह नहीं होता है। अतः दसवें गुणस्थान में चौदह परीषहों का कथन विरुद्ध नहीं है।
अब शेष रहे निषद्या आदि आठ परीषहों की उत्पत्ति की कर्महेतुता बतलाते हैं
१ सूक्ष्मसंपरायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ।
----तत्त्वार्थसूत्र ६।१०
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