Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधहेतु - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४
सूक्ष्मसंपराय आदि गुणस्थानों के बंधहेतु एवं उनके भंग
सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में सूक्ष्मकिट्टी रूप की गई संज्वलन लोभकषाय और नौ योग कुल दस बंधहेतु हैं । एक जीव के एक समय में लोभ कषाय और एक योग इस प्रकार दो बंधहेतु और अनेक जीवों की अपेक्षा उस एक कषाय का नौ योगों के साथ गुणा करने पर नौ भंग होते हैं ।
उपशांतमोह आदि सयोगिकेवली पर्यन्त गुणस्थानों में मात्र योग ही बंधहेतु है । उपशांतमोहगुणस्थान में नौ योग हैं। उन नौ में से कोई भी एक योग एक समय में बंधहेतु होने से उनके नौ भंग होते हैं ।
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इसी प्रकार से क्षीणमोहगुणस्थान में भी नौ भंग होते हैं । सयोगिकेवलीगुणस्थान में सात योग होने से सात भंग होते हैं । इस प्रकार से गुणस्थानों में से प्रत्येक के बंधहेतु और उनके भंगों को जानना चाहिये ।
अब ग्रंथकार आचार्य गुणस्थानों के बंधहेतुओं के कुल भंगों की संख्या का योग बतलाते हैं
सव्वगुणठाणगेसु विसेसहेऊन एत्तिया सखा ।
छायाललक्ख बासीइ सहस्स सय सत्त सयरी य ॥ १४ ॥
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शब्दार्थ - सव्व - समस्त, गुणठाणगेसु — गुणस्थानकों में, विसेस हेऊणविशेष हेतुओं को, एत्तिया - इतनी संखा - संख्या, छायाललत्रखछियालीस लाख, बासोइ -- बयासी, सहस्स– सहस्र, हजार, सय---शत, सौ, सप्त-सात सयरी - सत्तर, य
- और |
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गाथार्थ - समस्त गुणस्थानों के
विशेष बधहेतुओं के भंगों की कुल मिलाकर संख्या छियालीस लाख बयासी हजार सात सौ सत्तर है ।
विशेषार्थ - पूर्व में अनेक जीवों की अपेक्षा मिथ्यात्व आदि सयोगिकेवली गुणस्थान पर्यन्त बंधहेतुओं का निर्देश करते हुए प्रत्येक गुणस्थान में प्राप्त भंगों को बताया है । इस गाथा में उन सब भंगों को
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