Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 130
________________ बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ इस प्रकार कुल मिलाकर मिथ्यादृष्टि असंज्ञी अपर्याप्त के (३६०+ ३६०+३६०+३६० = १४४०) चौदह सौ चालीस भंग होते हैं और दोनों गुणस्थानों के बंधहेतुओं के कुल मिलाकर भंग (९६०+१४४० = २४००) चौबीस सौ होते हैं। पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय के बंधहेतु के भंग पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय के जघन्यपद में सोलह बंधहेतु होते हैं। जो इस प्रकार हैं-एक मिथ्यात्व, छह काय का वध, पांच इन्द्रियों की अविरति में से किसी एक इन्द्रिय की अविरति, युगलद्विक में से कोई एक युगल, अनन्तानुबंधी आदि कषायों में से कोई भी क्रोधादि चार कषाय, वेदत्रिक में से एक वेद और औदारिक काययोग तथा असत्यामृषा वचनयोग रूप दो योग। जिनकी अंकस्थापना इस प्रकार जानना चाहियेमिथ्यात्व षट्कायवध इन्द्रिय-अविरति युगल कषाय वेद योग इन अंकों का क्रमशः गुणा करने पर सोलह बंधहेतुओं के दो सौ चालीस (२४०) भंग होते हैं । १. इन सोलह बंधहेतुओं में भय का प्रक्षेप करने पर सत्रह बंधहेतु होते हैं । इनके भी दो सौ चालीस (२४०) भंग होते हैं। २. अथवा जुगुप्सा का प्रक्षेप करने पर भी सत्रह बंधहेतु होते हैं। इनके भी दो सौ चालीस (२४०) भंग जानना चाहिये। उक्त सोलह हेतुओं में भय, जुगुप्सा को युगपत् मिलाने से अठारह बंधहेतु होते हैं। इनके भी दो सौ चालीस (२४०) भंग होते हैं और सब मिलकर पर्याप्त असंज्ञो पंचेन्द्रिय के बंधहेतु के (२४०+२४०+ २४०+२४० =६६०) नौ सौ साठ भंग होते हैं। इस प्रकार पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय के बंधहेतुओं के भंग जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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