Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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व हेतु - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २०
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१०६
को कषाय मुख्य बंधहेतु है तथा 'जोगहि य सायवेयणीयं' अर्थात् जहाँ तक योग पाया जाता है, वहाँ तक सातावेदनीय का बंध होता है और योग के अभाव में बंध नहीं होने से सातावेदनीय का योग बंधहेतु है ।
इस प्रकार से बंधयोग्य एक सौ बीस प्रकृतियों के बंध में सामान्य से तत्तत् बंधहेतु की मुख्यतया जानना चाहिये । लेकिन तीर्थंकरनाम और आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियों के बंधहेतुओं में कुछ विशेषता होने से अब आगे की गाथा में तद्विषयक स्पष्टीकरण करते हैंतित्थयराहाराणं बंधे सम्मत्तसंजमा हेऊ । पयडीप एसबंधा जोगेहि कसायओ इयरे ॥२०॥
शब्दार्थ - तित्थयराहाराणं-- तीर्थंकर और आहारकद्विक के, बंधे बंध में, सम्मत्तसंजमा -- सम्यक्त्व और संयम, हेऊ – हेतु, पयडीपएसबंधा - प्रकृति और प्रदेश बंध, जोगे हिं—योग द्वारा, कसायओ — कषाय द्वारा, इयरे — इतर - स्थिति और अनुभाग बंध |
गाथार्थ - तीर्थकर और आहारकद्विक के बंध में सम्यक्त्व और संयम हेतु हैं तथा प्रकृतिबंध एवं प्रदेशबंध योग द्वारा तथा इतरस्थिति और अनुभाग बंध कषाय द्वारा होते हैं ।
विशेषार्थ - यद्यपि पूर्वगाथा में 'सेसा उकसाएहि पद से तीर्थंकरनाम और आहारकद्विक - - आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग इन तीन प्रकृतियों के बंधहेतुओं का भी कथन किया जा चुका है कि शेष रही प्रकृतियों का बंध कषायनिमित्तक है और उन शेष रही प्रकृतियों में इन तीनों प्रकृतियों का भी समावेश हो जाता है । लेकिन ये तीनों
१ कर्मग्रन्थ टीका में सोलह का हेतु मिथ्यात्व को, पैंतीस का हेतु मिथ्यात्व और अविरति इन दो को, पैंसठ का योग के बिना मिथ्यात्व, अविरति, कषाय इन तीन को और सातावेदनीय का मिथ्यात्व अविरति, कषाय,
योग इन चारों को बंधहेतु बताया है ।
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