Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधहेतु - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८
अपर्याप्त त्रीन्द्रिय के बंधहेतु के भंग
अब त्रीन्द्रिय के बंधहेतुओं के भंगों का कथन करते हैं । पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से श्रीन्द्रिय भी दो प्रकार के हैं। उनमें से पहले अपर्याप्त श्रीन्द्रिय के बंधहेतुओं के भंगों को बतलाते हैं ।
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अपर्याप्त त्रीन्द्रिय के भी चतुरिन्द्रिय की तरह सासादनगुणस्थान में जघन्यपदभावी पन्द्रह बंधहेतु होते हैं । यहाँ इतनी विशेषता है कि इन्द्रिय-अविरति के स्थान पर तीन इन्द्रियों की अविरति में से एक इन्द्रिय की अविरति ग्रहण करके अंकस्थापना इस प्रकार करना चाहिये
इन्द्रिय- अविरति युगल वेद
२
कायवध
कषाय योग
१
३
१
४ २
इन अंकों का क्रमशः परस्पर गुणा करने पर पन्द्रह बंधहेतुओं के अड़तालीस (४८) भंग होते हैं ।
१. इन पन्द्रह बंधहेतुओं में भय को मिलाने पर सोलह हेतु होते हैं । इनके भी अड़तालीस (४८) भंग जानना चाहिये ।
२. अथवा जुगुप्सा को मिलाने पर भी सोलह हेतु होते हैं । इनके अड़तालीस (४८) भंग होंगे ।
पूर्वोक्त पन्द्रह बंधहेतुओं में भय-जुगुप्सा को युगपत् मिलाने पर सत्रह बंधहेतु होते हैं । इनके भी अड़तालीस (४८) भंग जानना चाहिये ।
इस प्रकार सासादनगुणस्थान में अपर्याप्त त्रीन्द्रिय के बंधहेतुओं के कुल मिलाकर ( ४६+४८४८+ ४८ = १६२ ) एक सौ बानवे भंग होते हैं ।
मिथ्यादृष्टि अपर्याप्त त्रीन्द्रिय के पूर्वोक्त पन्द्रह बंधहेतुओं में मिथ्यात्वरूप हेतु के मिलाने से सोलह बंधहेतु होते हैं । यहाँ योग कार्मण, औदारिकमिश्र और औदारिक ये तीन होने से योग के स्थान
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