Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ४ देव और नारकों की अपेक्षा वैक्रियकाययोग एवं मनुष्य और तिर्यंचों की अपेक्षा औदारिककाययोग संभव होने से कुल पांच योग होते हैं। अतएव संज्ञी के अपर्याप्त अवस्था में सम्यग्दृष्टित्व की अपेक्षा या मिथ्याष्टित्व की अपेक्षा बंधहेतुओं के भंगों के कथन करने के प्रसंग में योग के स्थान पर पांच का अंक रखना चाहिये। __इस भूमिका को बतलाने के पश्चात् अब पहले जो गाथा १५ में संज्ञी अपर्याप्त के ( चोद्दसट्ठारसऽपज्जस्स सन्निणो) जघन्यपद में चौदह और उत्कृष्टपद में अठारह बंधहेतु कहे हैं, उनका विचार करते हैं। संज्ञी अपर्याप्त के बंधहेतु के भंग
जघन्यपद में चौदह बंधहेतु सम्यग्दृष्टि के होते हैं, जो इस प्रकार जानना चाहिये
छह काय का वध, पांच इन्द्रियों की अविरति में से कोई एक इन्द्रिय की अविरति, युगल द्विक में से कोई एक युगल, वेदत्रिक में से कोई एक वेद, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और सज्वलन क्रोधादि कषायों में से कोई भी क्रोधादि तीन कषाय तथा योग यहाँ पांच संभव हैं । जैसाकि ग्रथकार आचार्य ने ऊपर गाथा में संकेत किया है
सविउव्वेण सन्निरस सम्ममिच्छरस वा पंच। अर्थात् सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि संज्ञी अपर्याप्त के वैक्रिय और औदारिक काययोग के साथ पांच योग होते हैं। अतः पांच योगों में से कोई एक योग । इस प्रकार जघन्यपद में चौदह बंधहेतु होते हैं।
अंकस्थापना में पर्याप्त संज्ञी के सिवाय सभी जीवों के सदैव छह काय का वधरूप एक ही भंग होता है। इसलिए अंकस्थापना इस प्रकार करना चाहिये
काय वेद योग इन्द्रिय-अविरत युगल कषाय
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