Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
पंचसंग्रह : ४
८२
जोड़कर अंतिम संख्या बताई कि वे छियालीस लाख बयासी हजार सात सौ सत्तर (४६,८२,७७०) होते हैं ।
इस प्रकार से गुणस्थानों में युगपत् कालभावी बंधहेतु और उनके भंगों की संख्या बतलाने के पश्चात् अब जीवस्थानों में युगपत् काल भावी बंधहेतुओं की संख्या का प्रतिपादन करते हैं ।
जीवस्थानों में बंधहेतु
सोलसद्वारस हेऊ जहन्न उक्कोसया असनीणं । चोट्सद्वारesपज्जस्स समिणो सन्निगुणगहिओ ॥ १५ ॥
शब्दार्थ - सोलसट्ठारस - सोलह, अठारह, हेऊ हेतु, जहन्न — जघन्य, उक्कोसया - उत्कृष्ट, असन्नीणं - असंज्ञियों के, चौसट्ठारस- चौदह, अठारह, अपज्जस्त - अपर्याप्त, सन्निणो- संज्ञी के, सन्नि - संज्ञी को, गुणगहिओ - गुणस्थानों के द्वारा ग्रहण किया है ।
गाथार्थ - असंज्ञियों के जघन्य और उत्कृष्ट क्रमशः सोलह और अठारह बंधहेतु होते हैं, अपर्याप्त संज्ञी के जघन्य चौदह और उत्कृष्ट अठारह बंधहेतु होते हैं । संज्ञी को गुणस्थानों के द्वारा ग्रहण किया गया है ।
विशेषार्थ - गुणस्थानों की तरह जीवस्थानों में भी जघन्य और उत्कृष्ट बंधहेतुओं की संख्या का गाथा में संकेत किया है ।
जीवस्थानों के सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त आदि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त पर्यन्त चौदह भेदों के नाम पूर्व में बतलाये जा चुके हैं । उनमें से आदि के बारह भेद असंज्ञी ही होते हैं । अतः उन बारह भेदों का समावेश गाथा में 'असन्नीणं' शब्द द्वारा किया है। जिसका आशय इस प्रकार है
१ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी बंध-प्रत्ययों की संख्या यहाँ की तरह समान होने पर भी उनके भंगों में अंतर है । उनका वर्णन परिशिष्ट में किया
गया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org