Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधहेतु रूपणा अधिकार : गाथा प
२५
अब यदि एक समय में अनेक जीवों के आश्रय से भंगों की संख्या प्राप्त करना हो तो मिथ्यात्व आदि के भेदों की सम्पूर्ण संख्या स्थापित करना चाहिए। क्योंकि एक जीव को तो एक साथ मिथ्यात्व के सभी भेदों का उदय नहीं होता है । किसी को एक मिथ्यात्व का तो किसी को दूसरे मिथ्यात्व का उदय होता है तथा उपयोगपूर्वक जिस इन्द्रिय के असंयम में प्रवृत्त हो, उसको ग्रहण किये जाने से एक जीव को किसी एक इन्द्रिय का असंयम होता है और किसी को दूसरी इन्द्रिय का, इसी प्रकार किसी को एक काय का घात और वेद होता है तो किसी को दूसरे काय का घात और वेद होता है। इसलिए मिथ्यात्व आदि के स्थान पर उन के समस्त अवान्तर भेदों की संख्या इस प्रकार रखना चाहिए
―
मिथ्यात्व के पांच भेद हैं, अतः उसके स्थान पर पांच का अंक, उसके बाद पृथ्वीकायादि के घात के आश्रम से कार्य के छह भेद होने से छह की संख्या और तत्पश्चात् इन्द्रिय असंयम के पांच भेद होने से उसके स्थान पर पांच की संख्या रखना चाहिये ।
प्रश्न - पांच इन्द्रिय और मन, इस तरह इन्द्रिय असंयम के छह भेद होने पर भी इन्द्रिय के स्थान पर छह के बजाय पांच अंक रखने का क्या कारण है ?
उत्तर -- इन्द्रियों की प्रवृत्ति के साथ मन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है | अतः पांचों इन्द्रियों की अविरति के अन्तर्गत ही मन को अविरति का भी ग्रहण किये जाने से मन की अविरति होने पर भी उसकी विवक्षा नहीं की है । इसीलिए इन्द्रिय असंयम के स्थान पर पांच की संख्या रखने का संकेत किया है ।
तत्पश्चात् हास्य रति और अरति शोक, इन युगलद्विक के स्थान पर दो के अंक की स्थापना करना चाहिए। क्योंकि इन दोनों युगलों का
१. दि. कर्मग्रन्थ पंचसंग्रह गाथा १०३, १०४ ( शतक अधिकार ) में इन्द्रिय असंयम के छह भेद मानकर छह का अंक रखने का निर्देश किया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org