Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७
२३ उसका उदय नहीं होता है और उसके उदय का अभाव होने से मरण नहीं होता है । क्योंकि सत्कर्म आदि ग्रन्थों में अनन्तानुबंधी कषायों के उदय बिना के मिथ्यादृष्टि के मरण का निषेध किया है, जिससे भवान्तर में जाते समय जो सम्भव हैं ऐसे वैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण, ये तीन योग भी नहीं होते हैं। इसी कारण यह कहा गया है कि दस योग में से कोई एक योग होता है ।२
अनन्तानुबन्धी, भय और जुगुप्सा का उदय विकल्प से होता है । अर्थात् किसी समय उदय होता है और किसी समय नहीं होता है । १ अनन्तानुबंधी कषायों की विसंयोजना करके मिथ्यात्व में आने वाला जिस
समय मिथ्यात्व में आये, उसी समय अनन्तानुबंधिनी कषायों की अन्तः कोडाकोडी प्रमाण स्थिति बाँधता है । उसका अबाधाकाल अन्तमुहूर्त का है। यानि उतने काल तक उसका प्रदेश या रस से उदय नहीं होता है । परन्तु जिनका अबाधाकाल बीत गया है और रसोदय प्रवतमान है ऐसे अप्रत्याख्यानावरणादि के दलिकों को बंधती हुई अनन्तानुबंधी में संक्रमित करता है । वे संक्रमित दलिक एक आवलिका के पश्चात् उदय में आते हैं। जिससे मिथ्यात्वगुणस्थान में भी एक आवलिका तक अनन्तानुबंधी कषायों का उदय नहीं होता है । तथा---
जैसे बंधावलिका सकल करणों के अयोग्य है, उसी प्रकार जिस समय दलिक अन्य प्रकृति में संक्रान्त होते हैं, उस समय से लेकर एक आवलिका तक उन दलिका में कोई करण लागू नहीं पड़ता है । इसलिए संक्रमावलिका भी समस्त करणों के अयोग्य है । जिस समय अनन्तानुबंधी कषायों को बाँधे उसी समय अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के दलिकों को संक्रमित करता है, जिससे बंध और संक्रम का समय एक ही है । इसीलिए एक आवलिका तक अनन्तानबंधी के उदय न होने का संकेत किया है। २ दिगम्बर कर्मग्रन्थ पंचसंग्रह शतक अधिकार गा० १०३, १०४ एवं उनकी
घ्याख्या में भी इसी प्रकार से विस्तार से मिथ्यात्वगुणस्थान में दस योग होने के कारण को स्पष्ट किया है।
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