Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
गुणस्थान को प्राप्त करता है और वहाँ बोजभूत मिथ्यात्व रूप हेतु के द्वारा पुनः अनन्तानुबंधी का बंध करता है, तब एक आवलिका काल तक उसका उदय नहीं होने से उतने कालपर्यन्त दस योग ही होते हैं ।
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इस प्रकार से मिथ्यात्वगुणस्थान सम्बन्धी बंधहेतुओं का समग्र रूप से विचार करने के पश्चात् अब द्वितीय सासादनगुणस्थान और उसके निकटवर्ती तीसरे मिश्रगुणस्थान के बंधहेतु और उनके भंगों का निर्देश करते हैं ।
सासादन, मिश्र गुणस्थान के बंधहेतु
सासायणम्मि रूवं चय वेययाण नियगजोगाण | जम्हा नपुं सउदए वेडव्वियमीसगो नत्थि ||११||
चय
शब्दार्थ - सासायणम्मि - सासादन गुणस्थान में, रूवं - रूप (एक) - कम करना चाहिए, वेयहयाण - वेद के साथ गुणा करने पर, नियगजोगण -- अपने योगों का, जम्हा - क्योंकि, नपुंसउदए - नपुंसक वेद के उदय में, वेव्वियमीसगो - वैक्रियमिश्र योग, नत्थि नहीं होता है ।
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गाथार्थ - सासादनगुणस्थान में अपने योगों का वेदों के साथ गुणा करने पर प्राप्त संख्या में से एक रूप कम करना चाहिए । क्योंकि नपुंसकवेद के उदय में वैक्रियमिश्रयोग नहीं होता है । विशेषार्थ - गाथा में सासादनगुणस्थान के बंधहेतुओं के विचार करने का एक नियम बतलाया है ।
सासादन गुणस्थान में दस से सत्रह तक के बंधहेतु होते हैं । लेकिन इस गुणस्थान में मिथ्यात्व संभव नहीं होने से मिथ्यादृष्टि के जो जघन्य से दस बंधहेतु बताये हैं, उनमें से मिथ्यात्वरूप प्रथम पद निकालकर शेष पूर्व में कहे गये जघन्य पदभावी नौ बंधहेतुओं के साथ अनन्तानुबंधी कषाय को मिलाकर दस बंधहेतु जानना चाहिए। क्योंकि सासादनगुणस्थान में अनन्तानुबंधी का उदय अवश्य होता है | अतः उसके बिना सासादन गुणस्थान ही घटित नहीं हो सकता है।
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