Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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ias - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२
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पूर्वोक्त प्रकार से मिश्र गुणस्थान के बंधहेतु और उनके भंगों का कथन जानना चाहिए ।
अब चौथे अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान के बंधहेतु और उनके भंगों को बतलाते हैं ।
अविरत सम्यग्दृषि: गुणस्थान के बंधहेतु और उनके भंग
अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में भी मिश्रगुणस्थान की तरह नौ से सोलह तक बंधहेतु हैं । लेकिन उनके भंगों का कथन करने से पूर्व जो विशेषता है, उसको बतलाते हैं
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थीउदए विउव्विमीसकम्मइया । ओरालियमीसगो जन्नो ॥१२॥
में, चय
चत्तारि अविरए चय इत्थिनपु' सगउदए शब्दार्थ - चत्तारि - चार, अविरए - अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान - कम करना चाहिए, थोउदए - स्त्रीवेद के उदय में, विउटिवमीसकम्मइया - वैक्रियमिश्र, कार्मणयोग, इत्थिनपु सगउवए- स्त्री और नपुंसक वेद के उदय में, ओरालियमीसगो — औदारिकमिश्र, जत्— क्योंकि, नो-नहीं होता है ।
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गाथार्थ - अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में (वेद के साथ योगों का गुणा करके) चार रूप कम करना चाहिए। क्योंकि स्त्रीवेद के उदय में वैक्रियमिश्र और कार्मणयोग एवं स्त्रीवेद तथा नपुंसक वेद के उदय में औदारिकमिश्रयोग नहीं होता है । विशेषार्थ - गाथा में अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान के बंधहेतुओं के विचार को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम एक आवश्यक विशेषता का दिग्दर्शन कराया है कि
'चत्तारि अविरए चय' अर्थात् जैसे सासादन गुणस्थान के बंधहेतु के भंगों को बतलाने के लिए वेद के साथ योगों का गुणाकार करके एक रूप कम करने का संकेत किया है, उसी प्रकार यहाँ भी वेद के साथ योगों का गुणा करके गुणनफल में से चार रूप कम कर देना चाहिए |
चार रूप कम करने का कारण यह है कि अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में 'थीउदए विउव्विमीसकम्मइया जन्नों' स्त्रीवेद के उदय
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