Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२ गुणस्थान पर्याप्त अवस्थाभावी होने से अपर्याप्त अवस्थाभावी औदारिकमिश्र और कार्मण तथा चौदह पूर्व के अध्ययन का अभाव होने से आहारकद्विक कुल चार योग इसमें नहीं होते हैं। इसलिए औदारिकमिश्र, कार्मण और आहारकद्विक ये चार योग नहीं होने से इस गुणस्थान में शेष ग्यारह योग जानना चाहिए।
अब बंधहेतुओं के भंगों का विचार करते हैं
जघन्यपदभावी आठ बंधहेतु इस प्रकार हैं-पांच काय में से किसी एक काय का वध, पांच इन्द्रिय की अविरति में से किसी एक इन्द्रिय की अविरति, युगल द्विक में से एक युगल, वेदत्रिक में से कोई एक वेद, अप्रत्याख्यानावरणकषाय के उदय का अभाव होने से प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन की कोई क्रोधादि दो कषाय और ग्यारह योगों में से कोई एक योग, इस प्रकार एक समय में एक जीव को आठ बंधहेतु होते हैं।
तत्पश्चात् पांच काय के एक-एक संयोग में पांच भंग होते हैं, इसलिए कायवध के स्थान पर पांच भंग होते हैं। इसलिए कायवध के स्थान पर पांच, वेद के स्थान पर तीन, युगल के स्थान पर दो, कषाय के स्थान पर चार, इन्द्रिय-अविरत के स्थान पर पांच और योग के स्थान पर ग्यारह का अंक रखना चाहिए। जिसका रूपक इस प्रकार का होगा
योग कषाय वेद युगल इन्द्रिय-अविरति कायहिंसा ११ ४ ३ २ ५
इन अंकों का परस्पर गुणा करने पर एक समय में अनेक जीवों की अपेक्षा भंग उत्पन्न होते हैं।
गुणाकार इस प्रकार करना चाहिए कि किसी भी इन्द्रिय की अविरति वाला किसी भी काय का वध करने वाला होता है । अतः पांच इन्द्रिय की अविरति के साथ पांच काय का गुणा करने पर (२५) पच्चीस हुए । इन पच्चीस को युगलद्विक से गुणा करने पर (५०)
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