Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
६६
पंचसंग्रह : ४
भंग शेष रहते हैं और पूर्वोक्त रीति से स्थापित अंकों का परस्पर गुणा करने से नौ बंधहेतुओं के भंगों की संख्या चौरासी सौ के बदले अठासी सौ अस्सी होती है और काय से गुणा किये बिना के जो पहले चौदह सौ भंग किये हैं, उनके बदले चौदह सौ अस्सी करना चाहिए और उसके बाद उन चौदह सौ अस्सी को जहाँ छह कायवध हो, वहाँ तो उतने ही और जहाँ एक अथवा पांच काय का वध हो वहाँ छह गुणा, दो अथवा चार काय का वध हो वहाँ पन्द्रह गुणा और जहाँ तीन काय का वध हो वहाँ बीस गुणा करके भंग संख्या का विचार करना चाहिए ।
सप्ततिकाचूर्ण में कहा है कि चौथा गुणस्थान लेकर कोई जीव कदाचित् देवी रूप में उत्पन्न होता है । अतएव उस मत के अनुसार स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी के तेरह-तेरह और नपुंसकवेदी के औदारिकमिश्र के बिना बारह योग होने से पहले तीन वेद को तेरह योग से गुणा कर प्राप्त संख्या में से एक रूप कम करने पर अड़तीस (३८) शेष रहते हैं और उनके साथ स्थापित किये गये शेष अंकों का परस्पर गुणा करने से प्रत्येक बंधहेतु के और उनके विकल्पों के जो भंग होते हैं वे पूर्व में बताये गये सासादनगुणस्थान के भंगों के समान हैं ।
al
अब पांचवें देश विरत गुणस्थान के बंधहेतु और उनके भंगों को बतलाते हैं । देशविरतगुणस्थान के बंधहेतु और भंग
देशविरत गुणस्थान में जघन्य आठ और उत्कृष्ट चौदह बंधहेतु होते हैं । देशविरत श्रावक सकाय की अविरति से विरत होता है । अतएव यहाँ पांच काय की हिंसा होती है। पांच काय की हिंसा के द्विकसंयोग में दस, त्रिकसंयोग में दस और चतुष्कसंयोग में पांच और पंचसंयोग में एक भंग होता है । अतएव जितने काय की हिंसा आठ आदि हेतुओं में ग्रहण की हो और उसके संयोगी जितने भंग हों, उन भंगों के दर्शक अंक कार्यहिंसा के स्थान पर रखना चाहिए तथा यह
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International