Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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- प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३
प्रमत्तसंयत गुणस्थान के बंधहेतु बतलाने के बाद अब अप्रमत्तसंयतगुणस्थान के बंधहेतु और उनके भंग बतलाते हैं ।
अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में भी पांच से सात पर्यन्त बंधहेतु होते हैं । उनमें से पांच बंधहेतु इस प्रकार हैं - वेदत्रिक में से एक वेद, कार्मण, औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र के सिवाय ग्यारह योग में से कोई एक योग, युगलद्विक में से एक युगल और संज्वलनकषायचतुष्क में से कोई एक कषाय, इस प्रकार कम से कम पांच बंधहेतु होते हैं । यहाँ अंक स्थापना का रूपक इस प्रकार है
योग
११
वेद
३
इनमें से पहले वेद के साथ योग का गुणा करने पर तेतीस (३ x ११ = ३३) होते हैं। इनमें से स्त्रीवेद के उदय में आहारककाययोग नहीं होता है । इसलिए एक भंग कम करना चाहिए। जिससे बत्तीस (३२) शेष रहते हैं । ये बत्तीस हास्य- रति के उदयवाले और दूसरे बत्तीस शोक -अरति के उदयवाले होने से युगलद्विक से गुणा करने पर चौंसठ होते हैं । इनमें से कोई एक चौंसठ क्रोधकषायी होते हैं दूसरे चौंसठ मानकषायो, तीसरे चौंसठ मायाकषायी और चौथे चौंसठ लोभकषायी होने से चौंसठ को चार से गुणा करने पर ( ६४ x ४= -२५६) दो सौ छप्पन हुए ।
७७
युगल
२
कषाय
४
इस प्रकार पांच बंधहेतु के कुल ( २५६ ) दो सौ छप्पन भंग होते हैं ।
अब छह हेतु और उनके भंगों को बतलाते हैं
१. पूर्वोक्त पांच बंधहेतुओं में भय को मिलाने पर छह हेतु होते हैं । यहाँ भी (२५६) दो सौ छप्पन भंग होते हैं ।
२. अथवा जुगुप्सा को मिलाने से भी छह हेतु होते हैं । यहाँ भी (२५६) दो सौ छप्पन भंग होते हैं ।
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