Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
veg - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२
५.-६
इस प्रकार स्त्रीवेद में औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मण यह तीन योग और नपुंसकवेद में औदारिकमिश्र काययोग घटित नहीं होता है । इसलिए वेदों के साथ योगों का गुणा करके गुणनफल में से बार रूपों को कम करने का विधान बताया है ।
इस प्रकार से अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान के बंधहेतुओं के भंगों विषयक विशेषता का निर्देश करने के पश्चात् अब जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त के बंधहेतुओं के ( नौ से सोलह हेतुओं तक के ) भंगों की प्ररूपणा करते हैं ।
पांच
अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में जघन्यपदभावी नौ बंधहेतु होते हैं । वे इस प्रकार हैं- छह काय में से कोई एक काय का वध, इन्द्रियों में से एक इन्द्रिय की अविरति युगलद्विक में से एक युगल, वेदत्रिक में से एक वेद, अप्रत्याख्यानावरणादि कोई भी क्रोधादि तीन कषाय, तेरह योग में से कोई एक योग । इस प्रकार कम से कम नौ बंधहेतु एक समय में एक जीव के होते हैं और एक समय में अनेक जीवों की अपेक्षा भंगों की संख्या प्राप्त करने के लिए अंकस्थापना निम्नप्रकार से करना चाहिए
कषाय
युगलद्विक इन्द्रिय-अविरति कायवध योग वेद
२
५
१३ ३
1
६ तीन वेदों के साथ तेरह योगों का गुणा करने पर उनतालीस ३६ होते हैं । उनमें से चार कम करने पर पैंतीस रहे । उनको छह काय से गुणा करने पर (३५ × ६ = २१०) दो सौ दस हुए । उनको पांच इन्द्रियों को अविरति के साथ गुणा करने पर ( २१०५ - १०५०) एक हजार पचास होते हैं । उनको युगलद्विक के साथ गुणा करने पर ( १०५०x२ = २१०० ) इक्कीस सौ हुए और उनको भी चार कषाय के साथ गुणा करने पर (२१००×६ = ६४०० ) चौरासी सौ होते हैं ।
इस प्रकार नौ बंधहेतुओं के अनेक जीवों के आश्रय से (८४०० ) चौरासी सौ भंग होते हैं ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org